Book Title: Padarth Pradip
Author(s): Ratnajyotvijay
Publisher: Ranjanvijay Jain Pustakalay

View full book text
Previous | Next

Page 30
________________ इसी कारण एकेन्द्रिय पुनः पुनः स्वकाय में उत्पन्न होते है । उधार पैसे का उपभोग न करने पर भी ब्याज तो अवश्य लगता है। 4. मन-वचन-कायाकी निषेध-अशुभ में प्रवृत्ति करने से अशुभ कर्म, विहित-पूजा पाठादि में प्रवृत्ति से शुभ कर्म बंध होता है। निम्न क्रियाओ से अशुभ कर्म का बंध होता है। उपरोक्त चार हेतु में उसका समावेश होने पर भी शिष्य को स्पष्ट समझाने के लिए उसका विवरण किया जाता पच्चीश क्रिया 1. कायिकी क्रिया - जयणा | उपयोग रखे बिना कार्य करना, जैसे हरी वनस्पति नीलफुग - निगोद पर चलना । 2. अधिकरणिकी क्रिया - जीव विनाशक नये शस्त्र बनाना/ सुधारना। 3.प्राद्वेषिकी क्रिया - जीव/अजीव पर द्वेष करना । ठोकर लगने पर "यह पत्थर कहां से बीच में आया" इस प्रकार क्रोध करना । 4. पारितापनिकी क्रिया - स्व पर को दुःख उपजाने वाली प्रवृत्ति । करना। 5. प्राणातिपातिकी क्रिया - किसी भी प्राणी का वध करना । 6.आरंभिकी क्रिया - छ काय का वध हो/वध की संभावना हो, एसा आरंभ समारंभ करना, जैसे मकान बनाना । 7. पारिग्रहिकी क्रिया - धन धान्यादि का ममत्व भाव से संग्रह करना । 8. माया प्रत्ययिकी क्रिया - छल-कपट से दूसरे को ठगना । 9.मिथ्यादर्शन प्रत्ययिकी क्रिया - जिनेश्वर के वचन पर अश्रद्धा करना। 10. अप्रत्याख्यानिकी क्रिया - व्रत/पच्चक्खाण आदि न करना । 11. दृष्टिकी क्रिया - इष्ट पर राग की दृष्टि, अनिष्ट पर द्वेष की दृष्टि . रखना। 13 पदार्थ प्रदीप

Loading...

Page Navigation
1 ... 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132