Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आगम की ६० गाथाओं का सार्थ चिन्तन
१ चोला आगम की ८० गाथाओं का सार्थ चिन्तन
१ पंचोला आगम की १०० गाथाओं का सार्थ चिन्तन
१ छह का थोकड़ा आगे २०-२० गाथाओं के क्रम से १-१ थोकड़े की वृद्धि पोष या माघ महीने में पछेवड़ी को ओढ़े बिना आगम की १३ गाथाओं का ध्यान करे तो १ उपवास, २५ गाथाओं का २ उपवास, ५० गाथाओं का ४ उपवास और १०० गाथाओं का ध्यान करे तो १० उपवास उतरते हैं। पोष या माघ महीने में रात्रि में ८ हाथ का वस्त्र पहने ओढ़े तो प्रायश्चित्त रूप में प्राप्त १ तेला, २३ हाथ ओढ़े पहने तो
१ बेला, ३८ हाथ ओढ़े पहने तो १ उपवास उतरता है। ७. वैशाख और ज्येष्ठ में १ प्रहर आतापना ले तो १ तेला उतरता है। रचना शैली
प्रस्तुत आगम छेदसूत्रों में आदिभूत है। इसकी रचना शैली शेष छेदसूत्रों से भिन्न है। इसके उन्नीस उद्देशकों का प्रत्येक सूत्र 'सातिज्जति' क्रियापद से समाप्त होता है। इन सबकी पूर्णता प्रायश्चित्त के विधान के साथ होती है। बीसवें उद्देशक की रचना उन्नीस उद्देशकों से भिन्न प्रकार की है। उसमें तीन प्रकार के सूत्र हैं-आपत्तिसूत्र, आलोचनासूत्र एवं आरोपणा सूत्र । इन तीनों के पुनः दस-दस प्रकार हो जाते हैं। इनमें से प्रस्तुत उद्देशक में आपत्ति सूत्रों में कुछ सूत्रों का सूत्रतः कथन है और कुछ सूत्रों का अर्थतः। आलोचना एवं आरोपणासूत्रों में सकृत् सातिरेक संयोग सूत्र एवं आरोपणासूत्रों में सकृत् सातिरेक संयोग सूत्र तथा बहुशः सातिरेक संयोग सूत्र के एकएक चतुष्क संयोगी भंग वाले सूत्र का सूत्रतः कथन है। शेष समस्त सांयोगिक भंगों वाले सूत्र अर्थतः गम्य हैं। निशीथ चूर्णिकार के अनुसार इन सांयोगिक सूत्रों की संख्या करोड़ों तक पहुंच जाती है। इस प्रकार प्रस्तुत आगम बहुत संक्षिप्त शैली में रचित है। यद्यपि इसकी भाषा प्रायः सरल है पर विषय का प्रतिपादन सूचक एवं सांकेतिक शब्दों में किया गया है। अतः भाष्य एवं चूर्णि के अवलम्बन के बिना उनका हृदय-स्पर्श अत्यन्त दुष्कर है। इस दृष्टि से इसका शब्दशरीर जितना लघुतम है, अर्थशरीर उतना ही विराट है। भाष्य एवं चूर्णिगत विविध निक्षेपों पर आश्रित व्याख्या को पढ़ने से ऐसा प्रतीत होता है मानो सूत्र के एक-एक शब्द-बिन्दु में अर्थ-सिन्धु समाया हुआ है। महत्त्व
छेदसूत्रों को जैन संघ की न्याय संहिता कहा जाता है। चतुर्विध अनुयोगों-चरणानुयोग, धर्मानुयोग, गणितानुयोग एवं द्रव्यानुयोग में मुनि के लिए सर्वप्रथम चरणानुयोग की वाचना अनिवार्य है। जो मुनि चरणानुयोग से पूर्व शेष तीनों में से किसी अनुयोग का वाचन करता है अथवा इन अनुयोगों का व्युत्क्रम से अध्ययन-अध्यापन करता है, वह उद्घातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का भागी होता है। आवश्यक नियुक्ति एवं निशीथ भाष्य के अनुसार सभी छेदसूत्रों का समावेश चरणानुयोग में होता है। अतः आगम वाङ्मय में इनका प्रथम स्थान
भगवान महावीर संघ व्यवस्था के प्रति बहुत जागरूक थे। उन्होंने प्रारम्भ से ही श्रमणसंघ की आचारसंहिता और प्रायश्चित्तसंहिता पर बहुत गहरा ध्यान दिया था। सामान्यतः धार्मिक संघों में प्रचलित निषेध एवं प्रायश्चित्त-विधियां तात्कालिक घटनाओं पर आधारित होती हैं। छेदसूत्रों के कुछ निषेध और प्रायश्चित्त-विधियां घटनाओं पर आधृत हो सकती हैं पर मौलिक विधिनिषेध अहिंसा, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह की सूक्ष्म विचारणा से समुत्पन्न हैं। कुछ निषेध अन्यान्य भिक्षुसंघों में प्रचलित विधियों के परिणामों से सम्बन्धित भी हैं। इस प्रकार अनेक हेतुओं से समुत्पन्न निषेधों एवं प्रायश्चित्त विधियों का संकलन होने से आगम वाङ्मय में छेदसूत्रों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। १. भिआको. २, पृ. ४०५,४०६
(ख) निभा. ४ चू. पृ. २५३ २. निभा. गा. ५९४७ छेदसुत्त णिसीहादी।
५. (क) आवनि. गा. ४८० ३. वही, भा. ४ चू. पृ. ३६४-३६७
(ख) निभा. गा. ६१९० ४. (क) निसीह. १९/१६