________________
संघ स्तुति
अनावृत चांदनी होती है, वैसे ही तुम में मिथ्यात्व रूप आवरण रज और कार्बन से रहित निर्मल सम्यक्त्व रूप शीतल चांदनी है।
ऐसे हे संघ रूप चन्द्र! तुम नित्य जय पाओ-अन्य दर्शन रूप तारों से सदा अतिशयवान रहो। , अब आचार्यश्री छठी सूर्य की उपमा से संघ की स्तुति करते हैं। पर-तित्थिय-गह-पह-नासगस्स, तव-तेय-दित्त-लेसस्स। नाणुजोयस्स जए, भई दम-संघ-सूरस्स॥१०॥ . सूर्य की उपमा वाले हे संघ! तुम परतीर्थिक रूप ग्रहों की प्रभा का नाश करने वाले हो। जो अन्यमत हैं, वे अल्पप्रभा के समान जो-एक एक दुर्नय हैं, उनके आग्रही होने से अल्प प्रभा वाले ग्रह के समान हैं तथा जो जैनमत है, वह विशिष्ट प्रभा के समान अनन्त नयों के समूह का ग्रहण करने वाला होने से विशिष्ट प्रभा वाले सूर्य के समान है। जैसे सूर्य अपनी विशिष्ट प्रभा के फैलाव से ग्रहों की अल्प प्रभा को अदृश्य कर देता है, वैसे ही जैनमत रूपी सूर्य अनन्त नय समूह, रूप अपनी विशिष्ट ज्ञान प्रभा के फैलाव से अन्यमत रूपी ग्रहों की एक दुर्नय रूप सामान्य प्रभा को नष्ट कर देता है।
सूर्य की उपमा वाले हे संघ! तुम तपस्तेज रूप दीप्त लेश्या वाले हो। जैसे सूर्य मंडल में 'दीप्तिमान तेजस्विता होती है, जिससे कोई सूर्य को आँख उठा कर नहीं देख सकता, वैसे ही तुम में तप रूप जो तेजस्विता है, उससे अन्य कोई तुम्हें कुदृष्टि से नहीं देख सकता।
तुम ज्ञान रूप उद्योत वाले हो। जैसे - सूर्य में पदार्थों को प्रकाशित करने वाला प्रकाश होता है, वैसे ही तुम में लोकालोक के समस्त द्रव्यों को प्रकाशित करने वाला ज्ञान रूप प्रकाश है।
ऐसे 'दम'-उपशम प्रधान, 'संघ' रूप 'सूर्य' 'तेरा भद्र हो' - भला हो, कल्याण हो। ... अब आचार्य श्री सातवीं समुद्र की उपमा से संघ की स्तुति करते हैं -
भई धिई-वेला-परिगयस्स, सजाय-जोग-मगरस्स। .. अक्खोहस्स भगवओ, संघसमुदस्स रुंदस्स॥११॥ .
समुद्र की उपमा वाले हे संघ! तुम धृति-धैर्य रूप वेला से परिगत हो। जैसे-समुद्र में सभी ओर लहरें उठती रहती हैं, वैसे तुम में भी मूलगुण उत्तरगुण विषयक प्रतिदिन बढ़ते हुए उत्साह रूपी लहरें उठती रहती हैं या जैसे समुद्र में शुक्ल पक्ष में ज्वार-जलवृद्धि होती है, वैसे ही तुम में धर्म विषयक उत्साह रूप ज्वार आता है।
___तुम स्वाध्याय योग रूप मगर वाले हो। जैसे - समुद्र में हाथी आदि बड़े-बड़े तिर्यंचों को भी फाड़ देने वाले कई मगर रहते हैं, वैसे ही तुम में भी अष्टकर्मों को विदारित कर देने वाले, स्वाध्याय में लगे हुए शुभ योग रूपी अनेकों मगर रहते हैं।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org