________________
६
नन्दी सूत्र
riters
***********
कमल की उपमा वाले हे संघ! तुम श्रुतरत्न रूप दीर्घ नाल वाले हो। जैसे-कमल, दीर्घ नाल के सहारे अथाह कीचड़ और जल से ऊपर उठता है, वैसे ही तुम भी श्रुत-शास्त्र वचन रूप दीर्घ नाल के सहारे, कर्मरूप कीचड़ और जल से ऊपर उठे हो। ___तुम पाँच महाव्रत रूप स्थिर कर्णिका बीज-कोश, पंखुड़ियों वाले और गुणरूप केशर-पुष्प पराग, किंजल्क वाले हो। जैसे - कमल में कमलनाल के ऊपर कमल की पंखुड़ियाँ होती हैं, वैसे तुम में मूलगुण रूप पंखुडियाँ हैं। जैसे कमल की पंखुड़ियों के बीच केशर के समान पराग होती हैं, वैसे ही तुम्हारे मूलगुण रूप पंखुड़ियों में उत्तरगुण रूप सुगन्धमय पराग है।
सावग-जण-महुयरी-परिवुडस्स, जिण-सूर-तेय-बुद्धस्स। संघपउमस्स भई, समण-गण-सहस्स-पत्तस्स॥८॥
तुम श्रावकजन रूप मधुकरियों से परिवृत्त हो। जैसे-सुगंधित उत्तम कमल पर उसके मधुरस को पीने की स्वभाव वाली अनेक मधुकरियाँ-भंवरियों मंडराती रहती हैं, वैसे ही तुम पर, तुम्हारे प्रवचन रस रूप मधु को पीने के स्वभाव वाले श्रावक रूप मधुकरियाँ मंडराती रहती हैं।
तुम जिन रूप सूर के तेज से बुद्ध हो। जैसे सूर्य-विकाशी कमल, प्रातःकाल सूर्य की तेजस्वी किरणों के स्पर्श से खिलता है, वैसे ही तुम भी जिनेन्द्र रूप सूर्य के पैंतीस वचनातिशय युक्त महादेशना रूप तेजस्वी किरणों के श्रवण रूप स्पर्श से सम्यक्त्व बोधि रूप खिलाव को पाये हुए हो।
तुम श्रमणगण रूप सहस्रपत्रों वाले हो। जैसे उत्तम कमल के चारों ओर सहस्रों पत्ते होते हैं, वैसे तुम में साधुओं के विभिन्न गणों में रहे 'हुए सहस्रों साधुरूप पत्र हैं।
ऐसे हे संघ रूप पद्म-कमल, तेरा भद्र हो, - भला हो, कल्याण हो। अब आचार्य श्री पांचवीं, चन्द्र की उपमा से संघ की स्तुति करते हैं - तव-संजम-मयलंछण, अकिरिय-राहु-मुह-दुद्धरिस निच्चं। जय संघ-चंद! निम्मल-सम्मत्त-विसुद्ध-जोण्हागा॥९॥
चन्द्र की उपमा वाले हे संघ! तुम तप और संयम रूप 'मृग लांछन' वाले हो। जैसे-चन्द्रमा के धब्बे में हरिण के चिह्न की कल्पना है, वैसे ही तुम पर तप संयम रूप मृग चिह्न है। _ तुम अक्रिय रूप राहु के मुख से दुःधृष्य हो। जैसे-चन्द्रमा को राहू, ग्रसना चाहता है, वैसे ही परलोक में धर्मक्रिया का फल मिलेगा-ऐसा न मानने वाले नास्तिक तुम्हें ग्रसना चाहते हैं, पर तुम्हें वे ग्रस नहीं सकते। - तुम निर्मल-सम्यक्त्व रूप विशुद्ध ज्योत्सना वाले हो। जैसे-शरदपूर्णिमा को मेघों के अभाव के कारण, धूलि के उपशांति के कारण और उष्णता के अभाव के कारण, चन्द्र की विशुद्ध शीतल
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org