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णमो सिध्दाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन
प्रारम्भिक छोर या मूल स्थान तक कोई पहुँच नहीं पाया, न समय की सीमा का ही स्पर्श कर पाया। इसलिये इसका अनादित्व माना जाना न केवल शास्त्र-संगत है अपितु युक्ति-संगत भी है।
सत्य की खोज ___ संसार में जितने भी प्रकार के प्राणी हैं, उनमें बुद्धि, मनन, चिन्तन तथा हित-अहित के विमर्श की अपेक्षा से मानव सर्वाधिक श्रेष्ठ माना जाता है। वह अपने लिये श्रेयस् और कल्याण के संबंध में चिंतन करने की सहज उत्सुकता और उत्कंठा लिये होता है। उसका जीवन उस सत्य की गवेषणा में अभिरुचिशील होता है, जिससे उसे शांति, सुख और परितोष मिले।
आत्मा तथा शरीर का समन्वित रूप जीवन है। आत्मा रहित शरीर निष्प्रयोजन होता है । आत्मा शरीर का साहचर्य पाकर ही कृतित्वशील बनती है, इसलिए जब जीवन का चिंतन किया जाय तो इन दोनों को लेकर आगे बढ़ना होता है। यद्यपि आत्मा, पुनर्जन्म, स्वर्ग एवं नरक आदि में विश्वास नहीं करने वाले चार्वाक दर्शन ने आत्मा को महत्त्व नहीं दिया। पंचभौतिक शरीर को उसने परम सत्य स्वीकार किया। कहा गया है :
यावज्जीवेत्सुखं जीवेत्, ऋणं कृत्वा धृतं पिबेत् ।
भस्मीभूतस्य देहस्य, पुनरागमनं कुत: ? ।। अर्थात्- ऋण करके भी घृत का पान करो, संसार का भोग करो। जब तक जीओ, तब तक सुख पूर्वक जीओ। जब शरीर जला दिया जायेगा तो सब कुछ जल जायेगा, फिर उसका किसी रूप में आगमन-जन्म आदि नहीं होगा।
यद्यपि भौतिक सुखों की दृष्टि से चार्वाक की यह उक्ति बड़ी आकर्षक है किंतु इससे मानव को आंतरिक संतोष प्राप्त नहीं हुआ क्योंकि उसने अनुभव किया, सांसारिक भोग नश्वर हैं। इतना ही नहीं, उनका निरंतर अधिकाधिक सेवन अनेक व्याधि और दु:ख रूप में परिणत होता है। संयोग, वियोग में बदल जाता है। अनुकूलता, प्रतिकूलता का रूप ले लेती है। भौतिक भोगोपभोग क्षणिक सुख प्रदान करते हैं, जो एक प्रकार से दु:ख ही है। उत्तराध्ययन-सूत्र में कहा है :
खणमित्तसुक्खा बहुकालदुक्खा, पगामदुक्खा अणिगामसुक्खा।
संसारमोक्खस्स विपक्खभूया खाणी अणत्याण उ कामभोगा।। भगवान् बुद्ध को ऐसी ही लोक की दु:खात्मक स्थितियों से सत्य की गवेषणा की प्रेरणा मिली और
१. सर्वदर्शन संग्रह, श्लोक-१८ पृष्ठ : २४. २. उत्तराध्ययन-सूत्र, अध्ययन-१४, गाथा-१३.