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या कम नहीं, ऐसे ही उत्साणीके लिये समझ लेना, तीर्थंकर प्रभुकी पदवीको पानेवाले जीव कितनेक जन्म पहिले जबरदस्त त्यागके धारी होते हैं, विकारोंको पुनः पुनः जलांजलि देते हैं, वीशस्थानकोंकी या उनमेंसे एकाद स्थानककी आराधना करते हैं, बुरे करनेवालों पर भी द्वेष नहीं करते, उलटा इनकी क्या गति होगी ? इत्यादि भावदया विचारते हैं, ऐसे अनेक भवोंके शुद्धसंस्कारसे तीर्थकरपद प्राप्त होता है, और तीर्थकरके जीवोंकी करणी भी · त्रिषष्ठिशलाकापुरुष चरित्र ' देखो कैसी अद्भूत होती है?, इसतरह राग द्वेषसे रहित परमपवित्र जगत् विकार शून्य होनेसे केवलज्ञानकी ज्योतिः जिसमें प्रकाशित हुइ है ऐसे परमात्मा ही पूजन करनेके लायक होते हैं, दूसरे सामान्यकेवलीप्रभु वे तीर्थकरप्रभुसे पुण्याइमें कम होते है, मगर ज्ञानमें फरक नहीं होता है, उभयका ज्ञान सामान है परंतु तीर्थकर भगवान्की मधुर मालकोश रागमें देशना योजनतक सुनाइ देती है, और जघन्यसें भी कोटि देवता निरंतर जिनके चरणोंकी सेवा करते हैं. और रूप ऐसा अद्भूत होता है कि इन्द्रकाप भी इनके आगे तुछ मालूम पडता है, हमेशह अशोक वृक्ष, देवोंकी तर्फसे फूलांकी वर्षा, देवोंकी जयनादरूप ध्वनि, चामरोंका विझाना, रत्न स्वर्ण रजतके तीन कोट सहित सिंहासनपर विराजमान होकर देशना देना, इत्यादि आठ महापातिहार्यों का होना इत्यादि अनेक पुण्याइको नतीजे तीर्थकर प्रभुमें होते है, सो सामान्य केवलीमें नहीं होते, शासन के प्रस्थापक तीर्थंकरप्रभु होते हैं, अतः वे प्रथम नंबरमें उपकारक माने जाते हैं, और मामापकालीमें वे पुष्पके