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(१९१) पितरादिकका पूजन करके मांस खानेवालेको दोष नहीं लगता, वाह रे वाह ! ब्राह्मणो ! तुम्हारी चतुराईको. खैर. यहां तो मांसको खाकर भी शास्त्रकी आडसे भक्त जनोंमें निंदित न हुए मगर परलोकमें इन कर्मोंसे बड़ी भारी दुर्दशा होगी; सो भी खयाल करना चाहिये था. " कुशाः शाकं पयो मत्स्या, गन्धाः पुष्पं दधि क्षितिः । मांस शय्यासनं धाना :, प्रत्याख्येयं न वारि च ।। २१४ ।"
या. स्मृ. अ. १ । भावार्थ-कुश! शाक दुध मच्छी-माछली गध पुष्प दहि मिट्टी मांस शय्या आसन धान-अर्थात् भुने हुए जव और जल इनको ग्रहण कर लेवे. नटे ( हटे) नहीं. इनका दान लेनेका कुछ दोष नहीं है ॥ २ १४ ॥
इस उपरके श्लोकसे साफ सिद्ध हो गया कि, मांस तथा मच्छीका दान ब्राह्मणोंको कोइ देवे तो ना नहीं कहनी, उस मांस तथा मच्छीको ले लेनी कारण कि, जनके लेनेमें दोष नहीं लगता ऐसा याज्ञवल्क्यका कथन, ब्राह्मगोंके ऋषिको तथा उनके शास्त्रको कैसा अपवित्र सिद्ध करता है सो प्रत्यक्ष है.
इसके आगे किन किन वस्तुओंसे कहां तक पितर तृप्त रहते हैं सो जिकर है-जैसे- -- " हविष्यान्नेन वै मासं, पायसेन तु वत्सरम् । मात्स्यहारिणकौरभ्र-शाकुन छागपार्षतैः ॥ २५८ ॥ ऐणरौरववाराहशाशै-मसियथाक्रमम् । मासवृद्धयाभितृप्यन्ति, दत्तैरिह पितामहाः ॥ १५९ ॥"
या-स्मृ-अ-१।
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