Book Title: Mat Mimansa
Author(s): Vijaykamalsuri, Labdhivijay
Publisher: Mahavir Jain Sabha

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Page 235
________________ (२०८) भाषार्थ-परन्तु चमडा छुडाते समय ऐसा न हो कि अग्निके आगे होकर रुधिर वह चले ॥ २९ ॥ इस वपाके तैय्यार होने पर उसमें घीका ढार देकर उसे अग्निके उत्तर भागमें उतार कर रक्खे और पुनः उसमें घीका ढार देवे । ३० ॥ अनंतर उस आगमें पकी ववा जो ठंड के कारण जम जायगी उसे स्थालीपाककी रीतिसे या स्विष्टकृत् की रीतिसे चाकुसे काट कर उसमेंसे लेकर " अष्टकायै स्वाहा " इस मंत्रसे होम करे ॥३१॥ जिनके धर्मग्रंथ एसी बिभित्स बातोंसे भरे पड़े हैं. जिनका शिक्षण अंत्यज क्रियाके सदृश चरम उधेडना, मांसके टुकडे करना, देखना, खन न बह चले ऐसा हो, उन ग्रंथों पर चलनेवाले तथा पवित्र न होने पर भी उन्हें पवित्र मानने से आत्मकल्याणके मार्गमें है ऐसा कौन कह सकता है ? उचित है कि इन ग्रंथों के माननेवाले एकांतमें इस विषयका विचार कर वीतरागोक्त शास्त्रोंका मध्यस्थभावसे मनन कर निःसंकोवचासभे सत्यतत्त्वको स्वीकार करें. लो-अब मैं मेरे इस निबंधसे जनताका भला आशा रख कर आज यहां पर ही रखता हूं. " शिवमस्तु सर्वजगतः, परहितनिरता भवन्तु भूतगणा । दोषाः प्रयान्तु नाशं, सर्वत्र सुखीभवन्तु लोकाः ॥ १॥" ई. शान्तिः शान्तिः शान्तिः । इति मतमीमांसा प्रथम भाग-समाप्त। HERE

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