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राजगवी अर्थात् गा (ते) तेरे (पाणम् ) प्राणों को व्यसिस्रसम् ) मैं शिथिल कर चुका हुं (शरीररेण । तूं अपने शरीरसे ( महीं) पृथ्वीको (इहि ) प्राप्त हो (स्वधया) अमृत अर्थात् हविः स्वरूपसे (पितृन् ) पितरोंको ( उपेहि) प्राप्तहो (इह) इस लोकमें (प्रजया) सन्तान समेत (अस्मान् ) हम लोगोंको ( आवह ) कल्याण प्राप्त कर ॥
यह पदार्थ सायण भाष्यके अनुसार लिखा है. विशेष सायणभाष्यसे जान लेना.
" अथ य इच्छेत्पुत्रो मे पण्डितो विजिगीतः समितिगमः शुभूषितां वाचं भाषिता जायेत सर्वा वेदाननु वीत सर्वमायुरियादिति मांसौदनं पाचयित्वा सर्पिष्मन्तमश्रीयातामीधरा जनयित वा औक्षण वा ऋषभेण वा ।" (बृहदारण्यकोपनिषत्-अध्याय ८ ब्राह्मण ४ मन्त्र१८)
भावार्थ-जो पुरुष चाहता हो कि, मेरे ऐसा पुत्र उत्पन्न हो, जो कि पंडित विद्वान् और संस्कृत वाणी बोलनेवाला तथा सर्ववेदोंका वक्ता और पूर्ण आयुवाला हो तो, वो पुरुष मांस मिश्रित चावलोंका भोजन पकवा कर और उसमें घृत डाल कर अपनी स्त्री सहित खावे. मांस उक्ष अर्थात् बडे बैलका हो अथवा ऋषम अर्थात् उसके अधिक उम्र वाले बैलका हो ।
यह अर्थ 'शंकरभाष्य' के अनुसार किया है। आगे"क्षालनं दर्भकून, सर्वत्र स्रोतसां पशोः ।
तूष्णीमिच्छा क्रमेण स्या-द्वपार्थे पार्णदारूणि ॥१॥ सप्त तावन्मूर्द्धन्या-नि तथा स्तन चतुष्टयम् ।