Book Title: Mat Mimansa
Author(s): Vijaykamalsuri, Labdhivijay
Publisher: Mahavir Jain Sabha

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Page 222
________________ (१०५) ९, ये सब यथाक्रमसे सूर्य आदि नव ग्रहोंकी दक्षिणा देनी चाहिये ॥ ३०७ ॥ " भोगाँश्च दत्त्वा विप्रेभ्यो, वसूनि विविधानि च । अक्षयोऽयं निधी राज्ञां, यद्विप्रेषूपपादितम् ॥३१५॥" या-स्मृ-अ-१। भावार्थ:-ब्राह्मणोंको भोग सुख देवे, अनेक प्रकार के सुन्ना चाँदी आदि द्रव्योंका दान देवें. क्यों कि ब्राह्मणोंके अर्थ जो द्रव्य दिया जाता है वह राजाओंका अक्षय गुण खजाना हो जाता है ॥ ३१५।। " नातः परतरोधों नृपाणां यद्रणार्जितम् । विप्रेम्यो दीयते द्रव्यं, प्रजाभ्यश्चाभयं सदा ॥ ३२३ ॥ या. स्मृ. अ. १ । भावार्थ-जो राजा युद्धमें द्रव्यको संचित करके ब्राह्मणके अर्थ देता है और प्रजाके अर्थ जो अभय देता है। इससे अधिक राजाओंका परमधर्म नहीं है ॥ २२३ ॥ " राजा लब्ध्वा निषिदद्यात्, द्विजेभ्योऽधं द्विजः पुनः । विद्वानशेषमादद्यात् ,स सर्वस्य प्रभुर्यतः ॥ ३३४ ॥" या-स्मृ-अ २। भावार्थ-राजाको कहीं दबा हुआ खजानाका धन मिल जावे तो राजा उस धनमेंसे आधा धनको ब्राह्मणोंके वास्ते बांट देवे. और जो विद्वान् ब्राह्मणको कहीं धन मिल जावे तो उस संपूर्ण धनको आपही रखलेवे. क्यों कि यह ब्राह्मण संपूर्ण धनोंका प्रभु है ।। ३३४ ।। . इस प्रकार अनेक तरहसे दानका जिकर आता है. कहीं

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