Book Title: Mat Mimansa
Author(s): Vijaykamalsuri, Labdhivijay
Publisher: Mahavir Jain Sabha

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Page 224
________________ (१९०) ये लोग मांसादि स्निग्ध पदार्यके तो इतने लोभीये कि, भंगीके पात्रमेंसे भी लेनेमें दोष नहीं मानते थे. देखिये ! " आई मांसं घृतं तैलं, स्नेहाश्च फलसंभवाः। अन्त्यभांडस्थितास्त्वेते, निष्क्रान्ताः शुद्धिमाप्नुयुः २४९॥" अत्रि-स्मृति-पृष्ठ-४४ । भावार्थ-गीला मांस, घृत, तैल, फलसे उत्पन्न हुए तैलादि अन्त्यज-भंगीके पात्रमें रक्खे भी हो; परंतु निकाल लेने पर शुद्ध हो जाते हैं ।। २४९ ॥ देखा ! एक तो अपवित्र मांस फिर भंगीके पात्रका वाह ! धर्म शास्त्र ! तेरी खूबी क्या कहूं? "क्रतो श्रादे नियुक्तो वा, अनश्नन् पततिद्विजः। मृगयोपार्जितं मांस-मम्यर्च्य पितृदेवताः ॥ ५६ ॥" व्यास-स्मृति-पृष्ठ २५ । भावार्थ-यज्ञ और श्राद्धमें नियुक्त हुआ ब्राह्मण मांसको नहीं खाता हुआ भ्रष्ट हो जाता है तथा पितृदेवताओंका पूजन कर शीकारसे हांसल किये मांसको नहीं खाता हुआ भ्रष्ट बन जाता है । देखा ! शिकारका मांस ? इन लोगोंको मांस तो इतना प्रिय था कि, यज्ञमें नहीं देखते थे मनुष्यको और नहीं देखते थे गोको. देखो ! मनुष्यके विषयमेंमूल-(१) वाचे पुरुषमालभते । (२) आशायै जामिम् । -- (३) प्रतीक्षायै कुमारीम् ।

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