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और न रोके और पिछेसे दंड देवें तो वह अन्यायी क्यों न कहा जावे ?.
श्रावक-स्वामिन् ! आपका कथन ठीक है कि कर्म करते वख्त समर्थ होकर न रोके और पीछेसे दंड देवें वह न्यायी नहीं हो सकता है, परंतु एक यहभी युक्ति उन लोगोंकी तरफसे पेश होती है कि कोई चोर चोरी करता है, तो वो स्वयं जेलमें नहीं जाता या खुनकरनेवाला अपने आप फांसी नहीं चढता मगर राजा देता है, इसीतरह तरह परमात्मा दंड देनेवाला होना चाहिये, क्यों कि कर्म जड है
और चेतन दुःखी होना नहीं चाहता, तो फिर दुःख कैसे होगा?, और कर्म कैसे भोगे जायेंगे?, तथा वह नरकादिगतिओमें अपने आप कैसे जायगा?.
सूरीश्वर-जीव स्वयं दुःखी होना नहीं चाहता यह वात ठीक है, मगर कर्म दुःख दिये वगैर नहीं रहता, जैसे खाया हुआ अफीम दुसरेकी वगैर अपेक्षा रक्खे, जीवकी ईच्छा विरुद्ध इसका प्राण लेता है, ऐसे जीव के किये हुए अशुभ कर्म किसीकी अपेक्षा वगैर आत्माको दुःख दे सकता है, जैसे पापके उदयसे कसाईके हाथमें फसा, और वहां मारा गया, और दव कर मर गया, मकान गिर गया, धाडमारुओंने वैरसे काट डाला, बतलावो ? यहां पर परमात्मा कहाँ दंड देने आता है, ऐसे ही लडका मर गया, धन चोरा गया, इत्यादि अनेक कष्ट अशुभ कर्मोंसे संसारिक निमित्तोद्वारा ही जीव भोग सकता है, अगर उन कसाई लुटारें धाडमारु आदिसे जो दुख होता है वहां ईश्वरकी प्रेरणा है ऐसा माने