Book Title: Mat Mimansa
Author(s): Vijaykamalsuri, Labdhivijay
Publisher: Mahavir Jain Sabha

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Page 201
________________ (१७४) लोग सचे स्वरूपको समझ लेवे. बस-हमारा यही इरादा है. बाकी हमको किसी तरहका द्वेष भाव नहीं हैं. हम मानते हैं कि, कृष्णजीके बारेमें जैसा इन्होंने लिखा है वैसे काम उन्होने नहीं किये हैं. वे ऐसे न्यायी राजा थे कि, जिन्होंने देवके साथ अधम युद्ध करनेका भी साफ इन्कार किया था सो बात जैन दृष्टिसे कृष्णजीकी स्थितिका विचार करनेवालेकों ज्ञात हो सकती है और उनके वासुदेव पदके खयाल आनेसे भावी स्थितिका आरोप वर्तमानमें करनेसे हट सकते हैं परन्तु इस विषयकी सत्य हकीकत जाननेके लिये मध्यस्थ भावसे बहुत जैनशास्त्रोंके अवलोकनकी तथा अनेक तत्त्वज्ञ महाशयोंकी बार बार मुलाकातकी खास जरूरत है. परन्तु यह याद रहै कि, स्वार्थी ब्राह्मण लोगोंको मालूम न हो. नहीं तो जैनधर्म जैनगुरु और जैनदेवके विषयमें द्वेषके मारे इतने बुरे शब्द सुनायेंगे कि, जिसका हिसाब न रहेगा. क्यों कि जैनियोंके परिचयमें आया हुआ एकदम समझ जाता है कि, अमुक २ बातें स्वार्थियोंने दाखल की है और इस समझसे उन लोगोंका नुकसान होता है. अतः वे अनेक तरहसे प्रपंचोंसे भी अपने अनुयायियोंको अपनी जालसे नहीं छुटने देंगे यह खास अनुभवकी बात है. देखो इनके स्वार्थका नमुना मनुस्मृति प्रथम अध्याय पृष्ठ ३८ वा में लिखा है कि" यस्यास्येन सदाश्नन्ति, हव्यानि त्रिदिवौकसः । कव्यानि चैव पितरः, किंम्भूतमधिकं ततः ॥ ९५ ॥ भावार्थ-जिस ब्राह्मणके मुखमें बैठ कर देवता हव्य

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