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इस उपरके श्लोक में अपना स्वार्थ साधनेके लिये ब्राह्मणों ने मृषोक्ति लगाई है. स्वार्थ यह कि, इस श्लोकको सुन कर दुनियांके लोग विवाह करेंगे तब लग्न कराती वख्त तथा सीमंत वख्त पैदाश होगी और जिमन भी मिलता रहेगा, फिर लडका लडकीका जन्म होगा उस वख्त भी ब्राह्मणों को पैदाश होगी तिसके बाद उन लडके लडकियों की सगाई - नाता तथा विवाह में भी लाभ होता रहेगा इत्यादि स्वार्थ साधनेके वास्ते ही उन्होंने ऐसे श्लोक बना लिये हैं. इतना ही नहीं किन्तु मरे बाद लडके होंगे तो अपने माता पिता दादा आदिका श्राद्ध करेंगे तब भी हम ब्राह्मणोंको मिष्टान्नका जिमन तथा दक्षणा मिलेगी
" कितवान् कुशीलवान् क्रूरान्, पाषण्डस्थाँश्च मानवान् । विकर्मस्थान् शौण्डिकाँच, क्षिप्रं निर्वासयेत् पुरात् ॥ २२५॥” म-अ-९ ॥
भावार्थ- द्यूत आदि करनेवाले कितव नतर्क और गानेवाले क्रूर और पाखंडी, वेदके विरोधी, विकर्ममें स्थित - अर्थात् श्रुति और स्मृति से वाह्य व्रतके धारी और शौंडिक- मद्यप, इन सबको राजा अपने पुरसे निकास दे ॥ २२५ ॥
यहां पर जुआरी आदिकको नगरसे निकालना लिखासो ठीक है परन्तु यह जो लिखा है कि, वेद के विरोधी और श्रुति स्मृतिसे वाह्य व्रत धारीको भी पुरमेंसे राजा निकास दे सो कथन पक्षपात से भरा हुआ है. कारण कि, वेद स्मृति और पुराणों में लिखे मूजब पशु और पक्षियोंको मारके देवताओं का पूजन करनेवाले तथा श्राद्ध करके मांसका भक्षण करनेवाले
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