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(१८६) औषध्यः पशवो वृक्षा-स्तियंचः पक्षिणस्तथा । यज्ञार्थं निधनं प्राप्ताः, प्राप्नुवन्त्युत्सृतीः पुनः ॥ ४० ॥
म-अ-५। भावार्थ-ब्रह्माने स्वयं ही यज्ञके लिये और संपूर्ण सिद्धिके निमित्त पशु रचे हैं,तिससे यज्ञके विषे जो वध है वह वध नहीं है ॥३॥ यज्ञके लिये नाशको प्राप्त हुई वीहि आदि
औषधि पशु वृक्ष कूर्म आदि तिर्यग्जीव और कपिजल आदि पक्षी फिर भी जन्ममें उत्तम जन्मको प्राप्त होते हैं ॥ ४० ॥
यज्ञमें मरनेसे ही मरनेवालेका उत्तम जन्म-स्वर्ग होता हैं' इस कथनमें और ' अग्नि शीतल है ' इस कथनमें कुछ भेद नहीं हैं. अर्थात्-यह कथन युक्ति शून्य है. कोई भी बुद्धिशाली इस बातको कबूल नहीं कर सकता है कि, किसीको किसी स्थानमें मरने मात्रसे स्वर्गकी प्राप्ति हो जावे. स्वर्ग प्राप्ति तो उच्चकर्मके करनेसे है न कि मरनेसे.
हाँ, यज्ञमें मरे हुए पशु महाआर्त रौद्र ध्यानके वश हो कर दुर्गतिको प्राप्त करें यह तो संभव है.
श्रावक-साहिब ! अगर वे लोग ऐसा कहे कि, यज्ञमें मंत्र संस्कारसे वध्यप्राणियोंको तकलीफ नहीं होती और उच्चगतिको चले जाते हैं, तो इसका क्या उत्तर १.
सूरीश्वरजी-भाई ! उन जीवोंको दुःख नहीं होता तो यज्ञमें मरते वरून महा आराटि मार मार कर रुदन क्यों करते हैं ?. जब वे तो दुःखकी अंदर गरकाव हो रहे हैं फिर विना. परिणाम शुद्धिके आर्त प्राणी कैसे अच्छी गति पा सकते हैं ?. हां, अगर मरनेवालोंमें वैर भावना न रहे और धार्मिक वृत्ति