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(१८३) भावार्थ-ब्राह्मणोंको यज्ञके लिये और पालन करने योग्य माता पिता आदिकी पालना करनेके लिये प्रशस्त ( शास्त्रोक्त ) मृग और पक्षी मारने योग्य हैं. क्यों कि अगस्त्य मुनिने पहिले ऐसे ही किया है ॥ २२ ॥ पहिले भी ऋषियोंके किये यज्ञोंमें और ब्राह्मण और क्षत्रियोंके यज्ञोंमें शास्त्रोक्त मृग और पक्षियोंके मांससे 'पुरोडास' हुए हैं. इससे आधुनिक मनुष्य भी यज्ञके लिये प्रशस्त मृग और पक्षियोंको मारें ॥ २३ ॥
आगे चल कर ऐसे श्लोक लिखे है कि, जो एक आर्य मनुष्यके मुंहसे निकले हो ऐसी संभावना करनेसे भी दिल संकुचित होता है. "प्राणस्यानमिद सर्व, प्रजापतिरकल्पयत् । स्थावरं जगम चैव, सर्व प्राणस्य भोजनम् ॥ २८ ॥ चराणामन्नमचरा, दंष्ट्रिणामप्य दंष्ट्रिण । अहस्ताश्च सहस्तानां, शूराणां चैव भीरवः ॥ २९ ॥ नात्ता दुष्यत्यदन्नाद्यान्, प्राणिनोऽहन्यहन्यपि । धात्रैव सृष्टा ह्याद्याश्च, प्राणिनोऽत्तार एव च ॥ ३० ॥"
भावार्थ-ब्रह्माने यह संपूर्ण प्राण (जीव ) का अन्न रचा है स्थावर व्रीहि आदि और जंगम पशु आदि, संपूर्ण प्राणीका ही भोजन है. अर्थात्-प्राणकी रक्षाके निमित्त ही भक्षण करे सर्वदा नहीं ॥ २८ ॥ चरों (मृगादिकों ) का अन्न अचर (तृणादि ) हैं और दंष्ट्रावाले व्याघ्रादिकोंका अन्न विना दंष्ट्रावाले मृगादिक है, और हाथवाले मनुष्यादि