Book Title: Mat Mimansa
Author(s): Vijaykamalsuri, Labdhivijay
Publisher: Mahavir Jain Sabha

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Page 206
________________ (१७९) रखवाला मध्यस्थ मनुष्य समझ सके ऐसा विषय है इस लिये नहीं लंबाया जाता और इसी प्रकारके इसके साथ दो श्लोक और ब्राह्मणी सत्ताके स्थापक हैं सो अकलमंदको ईशारा काफी समझ कर नहीं लिये जाते. श्रावक-महाराजा ! अगर वो लोग ऐसा कहे कि, जैसे कोई ऋषि तपस्वी महात्मा पूज्य होता है और उसको कोपायमाम करनेवाला दुःखी हो जाता है. इसी तरह अच्छे कर्म करनेवाले ब्राह्मणोंको पूज्य माना जावे और उनको कोपित करनेसे नुकसान होवे तो उसमें आश्चर्य क्या?. सूरीश्वरजी-नहीं नहीं, ऐसा ही नहीं है, किन्तु मूर्ख तथा चाहे ऐसे पतित ब्राह्मणको भी पूज्य समझना चाहिये-यही इन लोगोंका मतलब है. साक्षीके लिये नीचेके श्लोकोंका अवलोकन करो.. " अविद्वांश्चैव विद्वाँश्च, ब्राह्मणो दैवतं महत् । प्रणोतश्चामणीतच, यथामिदैवतं महत् ।। ३१७॥ स्मशानेष्वपि तेजस्वी, पावको नैव दुष्यति । हुयमानश्च यज्ञेषु, भूय एवाभिवर्द्धते ॥ ३१८ ॥ एवं यद्यप्यनिष्टेषु, वर्त्तन्ते सर्वकर्मसु । सर्वथा ब्राह्मणाः पूज्याः , परमं दैवतं हि तत् ॥ ३१९॥" . म-अ-९॥ भावार्थ-शास्त्रोक्त विधिसे स्थापन की हुई वा नहीं स्थापन की हुई अग्नि जैसे महान् देवता होती है. इसी प्रकार मूर्ख और पंडित ब्राह्मण भो परम देवतारूप होता है ( इससे किसी प्रकारके ब्राह्मणका भी अपमान न करे) ॥ ३१७ ।।

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