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(९७) गोको देखते हुए भी लीला लीला कह कर आंखें मीच लेते हैं और सत्यमार्गको भूल कर उलटे ही रास्ते चले जाते हैं
और भ्रमणाकी ठोकरें खाते हुए अनंतकाल व्यतीत करते हैं, मगर सत्य जैनधर्मरूप सूर्यके प्रकाशसे प्रकाशित मार्गमें नहीं आनेसे मुक्तिसे वंचित रह जाते हैं.
उन जीवों पर हमारी अहोनिश भाव दया रहा करती है और यह विचार आता है कि हाय ! दुष्ट मिथ्यात्व ! तूंने उन जीवोंका नाश क्यों मारा है ?, इन्होने तेरा क्या बिगाडा है ?. जो विचारोंको रास्ते पर नहीं आने देता, इससे भी ज्यादा दुःख तो हमें इस बातका है कि जो उल्टे रास्ते पर चलते हुए भी सच्चे जैनधर्मसे द्वेष रखते हुए और अपने हृदयगत प्रज्वलित वैरको शांत करनेके लिये किसी पुस्तकमें ज्युं आवे त्यु जैनधर्मके बारेमें वकवाद करते हैं, जैसे 'अनंगभद्रा' अथवा 'वसभीपुरनो विनाश!' नामक पुस्तकमें एक मिथ्यांध " ठकर नारायण विसनजी" नामक व्यक्तिने किया है, मचकुर किताब के पृष्ठ ४० पर लिखा है कि-" ॥ १२॥ જૈન સાધુઓ પણ એ તાંત્રિક ધર્મના ઉપાસક થયા उता. " यह फिकरा लिखकर उसकी फूटनोटमें
જ્યારથી બહુ સંખ્ય જૈન સાધુઓએ તાંત્રિક ક્રિયાઓને સ્વિકારી ને મલીન જપ જાપ તથા માંસ બલિદાન આદિથી દેવી પિશાચ તથા વૈતાલ આદિની, ચારણ ભારણ અને વશીકરણ આદિ સિદ્ધિ માટે साधना : ४२२॥ मा..........मेरे पछी रे साधुमे। शुद्धयति भने પવિત્ર હતા. તેમણે એ ભ્રષ્ટ જેનસાધુઓથી પિતાની ભિન્નતાને દર્શાવવા भाटे श्वेतवखने पहले भात परिधान ४२१। भांडयां,............... બૈદ્ધધર્મ પ્રમાણે જ જૈનધર્મમાં પણ તે સમયમાં ભિન્ન ભિન્ન અનેક વિભાગે પડી ગયા હતા, તેમના દિગંબર શ્વેતાંબર અને સ્થાન કવાસી भुश्य ता."