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करें ? यह बडी कठीन बात है कि सतुशास्त्रकी तर्फ प्रेम बढे. प्रथम तो — " दृष्टिस्नेहो हि दुस्त्यजः यह बात अक्षरशः सत्य है, अगर किसी तरहसे किसीका दिल सत्यशास्त्रों की तर्फ हो भी जाय तो उसके प्रतिबंधक वर्णन ऐसे कल्पित बना लिये हैं कि दूसरेका दिल जमे ही नहीं. देखिये - शिवपुराण ज्ञानसंहिता अध्याय २१ वा जिसमें लिखा है किअच्युत - कृष्णने अपने शरीरसे एक मायावी पुरुषको उत्पन्न करके दैत्योंको खोटा उपदेश देना, यानि उन्हे वेदधर्मसे रहित करना ऐसी आज्ञा की, इस आज्ञाको पाकर उस मायावी पुरुषने हजारों दैत्योंको वेदधर्मसे भ्रष्ट किया, इत्यादि वर्णन है. जिसके पढनेसे यही मालूम होता है कि इस पुराणको रचनेवालोंने किसी तरह लोक जैन तत्वोंको सुनकर सावधान न हो जावे इस वास्ते प्रथमसे ही यह कल्पना कर ली कि जैनधर्म मायापुरुषका चलाया हुआ है और दैत्योंको दुर्गति देनेके लिये ही रचना हुई है. भला ? इस बातको कौन सत्य मान सकता है ? कि मायावीपुरुष ऐसे सत्यतत्र कथन कर सके कि जिसके साथ टक्कर लेनेमें दुनियां के समस्तधर्म असमर्थ हैं, अगर पक्षपातको जलांजलि देकर विचार करेंगे तो साफ तौर पर मालूम हो जायगा कि अपने कलित मार्गकी कलइ (पोल) ना खुल जावे, इस लिये सत्यमार्गके लिये यह बनावट खडी कर दी है, जिसको पढकर अविचारक वर्ग कदापि जैनधर्मके समीप भी ना जावे और हमारा कल्पित मार्ग हमेश निरंतराय बना रहे ऐसे ही इरादे से भागवत पंचमस्कंध अध्याय ६ के पत्र २० वे में भी ऐसी
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