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(११७) रसस्य तु घटं राजन् !, सम्पूर्ण त्वैक्षवस्यतु । तद्वत् संकल्पयेत् प्राज्ञ-चतुर्थाशेन वत्सकम् ॥ २॥" इत्यादि।
भावार्थ-रसकी गौके दानका विधान संक्षेपसे कहता हूं, लिंपी हुई तथा कृष्ण वर्णका चर्म और दर्भ जिसमें बीछाया है ऐसी भूमीमें इक्षुरसका घडा रखना, इसी तरह बुद्धिमान् चौथे भागमें बछडेकी कल्पना करे ॥१-२॥ इत्यादि रसकी गौको देनेकी विधिमें भी सोनेके सीम वगैरहका वर्णन आता है, मतलब ब्राह्मण लोगोंने सुखसे आजीविका चलानेके लिये गृहव्यवहारमें जिन जिन वस्तुओंकी जरूरत पड़ती है उन सब वस्तुओं का दान लिख मारा है, देखो १०२ और १०३ वे अध्यायमें गुडधेनु और शर्कराधेनुका दान देनेका जिकर है,-एक ठिकाने गौकी आंखें सच्चे मोतीकी बनानी लिखा है, १०१ से ११२ वे अध्याय तक सिर्फ लोभका ही पोषण करनेवाला उल्लेख किया गया है.
इसके बाद इसी पुराणके ११९ वे अध्यायमें अमुक अमुक वस्तुके. चढानेसे मैं खुश होता हूं ऐसा वराहजी कहते हैं, तथा हि" एवानि प्रतिगृह्णामि, यच्च भागवतं प्रियम् ।
मार्गमांसं वरं छाग, शासं समनुयुज्यते ॥ १२ ॥" " भागो ममास्ति तत्रापि, पशूनां छागलस्य च । माहिष वर्जयेन्मा, क्षीरं दधि घृतं ततः ॥ १४॥"