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(१३२) चेटक बना कर उसमें पवित्र धर्मको नीचा बतलानेके लिये कल्पित घटनाएं खडी कर देते हैं. देखो मर्हम नवलराम लक्ष्मीराम नामके शख्सने एक 'वीरमती' नामका नाटक बनाया है सो संवत् १९७७ की साल में छपा हुआ मेरेको उपलब्ध हुआ है. उसकी अंदर जो वाते दाखल की हैं प्रत्यक्षतया असत्य ज्ञात होती हैं. जिसे पढ़ कर लोहके गहिनेवाले राजपुत्रके दृष्टांतका स्मरण हो आता है.
देखो पृष्ट १४--
“ જગદેવ-(ધીમેથી) આટલું જૈન મુડીયાને માન शी आपो छ। ?"
नाटककार इन अपमान वाचक शब्दोंका प्रयोग चाहे अन्य पात्रके मुखसे निकलवाते हैं तथापि समझदार समझ सकते हैं कि—यह नाटककारके हृदयमें जलती हुई द्वेषरूप होलिका ही नतीजा है. हमारे प्रेमी नाटककार इस द्वेषाग्निमें इतने व्यग्र हुए थे कि, बेहोशीमें हेमचन्द्राचार्यके गुरुका नाम 'ज्ञानविजयसूरि ' लिख मारा. किसी भी जैनशास्त्र या प्रामाणिक इतिहासकारके पुस्तकमसे मजकुर सूरीश्वरजीके गुरुजीका नाम — ज्ञानविजय नहीं नीकल सकता. उनके गुरुजीका नाम 'श्री देवचंद्राचार्य' था. जिस भडकती हुई द्वेषाग्निमें नाम भी भूल जाय, या कल्पित बना कर लिखा जावे इस द्वेषाग्निसे लिखी हुई अन्य वातोंकी असत्यताका तो कहना ही क्या ?. सो ही दिखाते हैं.- देखो पृष्ठ १५ वे में
“જગદેવ–રજપૂતના રાજમાં નાસ્તિકોને એટલે मय शो ?