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अगर इस नाटककारको मिथ्यात्वने नहीं दबाया होता तो उसको मालूम हो जाता कि, मैं स्वर्णको पीत्तल कह रहा हूं और राजपुत्रकी तरह मेरी मान्यता रूप लोहे को सोना मान रहा हूं. परन्तु जहां मिथ्यात्वने जन्मांध राजपुत्र जैसा बना रक्खा हो वहां क्या सूझे ?. इसी पृष्ठ पर 'ज्ञानविजय 'के वास्ते उतारा करनेके लिये उसके नोकर वृक्षकी डालीओंके साथ चंदोवा बांधते हैं, यह भी बडी गप्प लगाई है. जैन साधु वृक्षके शाखाओंको दोरडे बांधनेमें आवे ऐसे आश्रयके कभी भी मुकाम नहीं करते. इससे जैन साधुओंके व्यवहारसे भी नाटककार कितना अज्ञान है सो भली प्रकार मालूम होता है. ऐसे अज्ञजन जैनसिद्धांतके विषयमें कुछ लिखने लगे तो वह सत्य लिख सके ऐसा कोई बुद्धिमान् नहीं मान सकता.
पृष्ठ १७ में 'पा नशा ' ही पाथरे। ' 240 मधी रायसी जी छ.' ' तुन ४ अय'--आदि बाबत भी बीलकुल कंपोल कल्पनासे खडी की गई है, क्यों कि जैन साधु कच्चा-अनुष्ण पानी तथा जाजम आदि काममें नहीं लेते.
इसके बाद २२-२३-२४-२५-२९-३०-३३ वे पृष्ठों पर जो जो उल्लेख किये हैं बिल्कुल प्रमाणशून्य बकवाद किया है. जब ज्ञानविजय नाम ही झूठा दिया है तो फिर इस विष
१ हम एक वचनका प्रयोग इस लिये करते हैं कि- हेमचंद्राचार्य महाराजसे संबंध धरानेवाली ' ज्ञानविजय ' नामक कोई भी व्यक्ति हुई ही नहीं हैं.