________________
(१५६ ) सूरीश्वरजी-महाशय ! सबूर करो. उस जीव पर भी भावदयाकी दृष्टिसे निहालो. उस विचारेने ऐसे पवित्र जैन धर्मकी लघुता करनेके संकल्पसे यह काम किया होगा तब तो महान् घोर कर्म बांद लिया होगा. उस कर्मको भुगतनेके समय उस जीवको असह्य पीडा होगी उधर ध्यान दो. क्यों किजिस समयमें परमपुनीत चारित्र पात्र यति हो उस समयके उल्लेखमें ऐसी न हुई व्यक्ति की कल्पनासे द्वेषपोषक पात्र खडे करनेवालेका भविष्य अतीव शोचनीय होता है, यह बात अगर तुम्हारे लक्षमें रहेगी तब तुमको उस पर दया आवेगी.
श्रावक-मुनीश्वर! आपका कथन सत्य है. परंतु हमारे घनश्यामने असत्य लिखने कसर नहीं रक्खी है. मैं मात्र उसकी असत्यता ही दिखलाना चाहता हूं. मुझे कुछ उससे द्वेष नहीं है. हां, मेरे अक्षर कठीन है मगर भावना अच्छी है. देखो-घनश्यामने " प्रथमे ग्रासे मक्षिकापातः " की तरह प्रथम पृष्ठ पर ही "श्राव। ५९॥ २१७ या ता" वगैरह शब्दो लिख कर अपने हृदयमें जलती हुई होलीकाका प्रथमसे ही दर्शन कराना शुरू किया है, क्यों कि कितावके दूसरे पृष्ठ पर
શ્રાવકેને પિતાના રાજાઓના રક્ષણ નીચે નિર્ભયપણે વ્યાપાર ४२पानी 24 परी ती." लिखा हुआ यह वाक्य श्रावक राज्यमर्यादाके पालक थे ऐसा सिद्ध करता है, फिर उनको स्वच्छंद कहना लेखककी उन्मत्तता नहीं तो और क्या कहा जाय. पृष्ठ १० पर-. " ति ?, २२ भन्या सता ते १." इत्यादि लिखाण स्वप्न छायावत् है. क्यों कि, इस वातमें कुछ भी प्रमाण दिखलाया नहीं है. पृष्ठ ११ वें पर जति और मंडलेश्वरकी वार्त्तारूप कल्पना दलील वगैरकी