Book Title: Mat Mimansa
Author(s): Vijaykamalsuri, Labdhivijay
Publisher: Mahavir Jain Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 189
________________ हो गया, मात्र पांचसो रुपये उसकी पास बाकी रह गए थे तब उसने विचार किया कि, विदेशमें जाकर कुछ अपूर्वचीजोंको खरीद लाऊं. जिसको देशः वेचने अच्छा नफा रहे. वह दुर्भागी मनुष्य जिस देशमें रहता था उस देशमें 'कोल्हा' फल नहीं होता था और खरगोश-ससला भी नहीं होता था. तदनंतर वह विदेशमें गया और देखा तो किसी एक नगरके शाक बाज़ारमें एक आदमी कोल्हे बेच रहा था. उसको उसने प्रथम अपनी बात सुना दी कि, मुझे पांच सौ रुपयेका ऐसा माल खरीदना है कि जिसको मैं अपने देशमें बेचु तो दूना दाम पैदा हो. उसकी बातको सुन कर वह शाकबेचनेवाला समझ गया कि, यह कोई बेवकूफ आदमी है इसको अच्छी तरहसे ठगे. ऐसा विचार करके बहुत मीठे शब्दोंमें उस दुर्भागीके साथ बातचीत करनी शुरू की. वह दुर्भागी उसे अपना मित्र समझने लगा. थोडीसी बातचीत चलनेके बाद उस अभागोने उससे प्रश्न किया कि, इस टोकरीमें क्या है ?. उसने कहा ये घोडेके अंडे हैं. जब उस मूर्खने किम्मत पूछी तब उस धूर्त्तने सातसौ रुपयेको किम्मत बतलाई. वह विदेशी चौंक कर पूछता है कि, हे ? इतनी किम्मत क्यों ?, शाकवालेने उत्तर दिया कि इस अंडेमेंसे घोडा निकलेगा तब वह एक हजार रुपयोंका होगा और दो चार महिनें इसको माल मसाला खिलानेमें आवेगा तो चौदहसौकी किम्मत भी हो जायगी. इस बातको सुन कर उस विदेशीका मन उसे खरीदनेका हुआ परंतु उसके पास रुपये मात्र पांचसौ ही थे, इस लिये चित्त घबराना था. अंतमें बड़ो अधीरतासे उसने कहा कि, मेरा दिल इस चीज़को ले जानेका है परंतु क्या करूं? मेरे पास

Loading...

Page Navigation
1 ... 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236