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(१५९) अर्थकालरूप उपद्रव होते भये, काष्टके घोडोंकी मूर्ति अट्टहास करने लगी, आंखोंको भी खोलने और मींचने लगी और सब दैत्य सुपने में अपने आत्माको लाल वस्त्रोंसे विभूषित देखने लगे. जो पुरुष सुपनेमें विपरीत वस्तु देखता है उसके बलबुद्धि शिवजीके कोपसे नष्ट हो जाते हैं. उसके अनंतर सांवर्तक नाम युगके अंतवाला वायु चलता भया ॥६-१४॥ उस वायुके चलनेसे अनि उत्पन्न हो त्रिपुरके वृक्ष दग्ध हो कर पृथ्वी पर गिरते भये, सर्वत्र हाहाकार होता भया. शिघ्र ही उसके सब बगीचे नष्ट हो जाते भये ॥१५-१६ ॥ अग्निके सोपसे सब जलते हुए वृक्ष और घर उस वायुने क्षण मात्रमें ही ना कर दिये और अग्निका समूह दसों दिशाओंमें अत्यंत बढता भया और उसकी ज्वलित ज्वालाओंसे संपूर्ण पुरके मूके वर्णके समान रक्त हो कर प्रकाशित होता भया ।।१७-१९॥ धृमके निबिड अंधकारके कारण वे सब देत्य एक घरसे दूसरे घरको नहीं जा सके. इस प्रकार शिवजीके कोप रूपी अग्निसे दग्ध हुआ वह सब पुर महादुःखित होता भया, सब दिशा
ओंमें हजारों महल जल कर पृथ्वीमें गिर पडे ॥ २०-२१ ।। उसी दीप्त अग्निसे अनेक प्रकारके चित्र विचित्र विमान और अनेक प्रकारके रमणीक स्थान भी भस्म हो कर गिर पडे. वहांके सब जन उन घरों से निकल निकल कर देवताओंके स्थानाकी ओर जाते भये और हजारों दानव अनेक स्वरोंसे रुदन करते हुए दग्ध होते भये ॥ २२-२४ ॥ और हंस कारंडवादि पक्षिओंसे युक्त कमलिनी और कमलों सहित बगीचे, जलकी वावडी, ये सब अग्निसे दग्ध हुए दीखते भये. उस पुरमें उत्तम कमलोंसे आच्छादित एक योजनके