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(१५१) ले कर गिरी, कोई स्त्री धृएँसे व्याकल हुई सखीका हाथ पकड पृथ्वीमें गिरी ॥ ६९-४० ॥ कोई स्त्री अग्निसे मोहित हो शिरके उपर हाथोंकी अंजली बांध कर अग्निसे यह प्रार्थना करती भई ॥ ४१ ।। हे भगवन् अग्नि ! जो तुह्मारा कोप अपकारी पुरुषों पर है तो घरमें रुकी हुई पिंजरेकी कोकिलाओंके समान स्त्रियोंका कौन अपराध है ? ॥ १२ ॥ हे पापी ! निर्दयी ! निर्लज्ज ! स्त्रियोंके उपर तेरा क्या क्रोध है. तूं चतुरतासे रहित लज्जासे विहीन, सत्य और शूरताको त्याग रहा है । ४३ ॥ ऐसे ऐसे वचनोंसे तिरस्कार करती भई. कि, हे पापी ? ने संसारमें क्या यह नहीं सुना है कि शत्रुओंकी स्त्रियोंको नहीं मारना चाहिये ? ॥ ४४ ॥ दग्ध करना तो तुझमें गुण है परन्तु ' दया' 'करुणा' • और तुरता' कुछ भी नहीं है ॥ ४५ ॥ जलती हुई स्त्रीको देख कर म्लेच्छ को भी दया आ जाती है-अर्थात् उनको भी दुर्वार कष्ट होता है. ॥ ४६ ॥ यह जलानेका गुण भी तूझमें व्यर्थ है, यह केवल तेरा दुराचार है क्यों कि, स्त्रियों के मारनेसे तेरेको कौनसा फल है ? ॥ ४७ ॥ हे दुष्ट ! निर्लज ! निर्दयी ! मंदभाग्य अग्नि ! तूं बडा दुर्भाग्य है, हमको बलसे जलाता है ॥ ४८ ॥ ऐसा बहुत प्रकारका विलाप करती हुई स्त्री क्रुद्ध हो बालकोंका शोक करती हुई मोहित हो गई ॥ ४९ ॥ पूर्वजन्मके शत्रु के समान क्रोधित हुआ अग्नि नदियोंको और कूप वापीओंकों भी भस्म कर देता भया ॥ ५० ॥ हे म्लेछ ! तूं हमको दग्ध करके किस गतिको प्राप्त होगा ? ऐसे ऐसे वचन उनके सुन कर अग्नि बोला कि, हे स्त्रीओ ! मैं अपने वशसे तूमको दग्ध नहीं करता, मैं तो नाश ही