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(११८) " लावकं वार्तिकं चैव, प्रशस्तं च कपिञ्जलम् । एते चान्ये च बहवः, शतशोऽथ सहस्रशः ॥ १७ ॥ मम कर्मणि योग्या ये, ते मया परिकीर्तिताः । यस्त्वेतत्तु विजानीयात् , कर्मकर्ता तथैव च ॥ १८ ॥"
इन श्लोकोंमेंसे मांसादिकसे मैं प्रसन्न होता हूं ऐसा भाव निकलता है, तो क्या ऐसा काम करनेवाले कभी देव हो सकतें है १. कहना ही होगा कि नहीं, सिर्फ तांत्रिकोंने अपने पेट भरनेके लिये ही ऐसा दुराचार फैलाया है.
इसके बाद इसी पुराणके मायाचक्र नामके १२५ वे अध्यायके ५०-५१ वे श्लोकमें" मम मायावलं ह्येत-धेन तिष्ठाम्यहं जले। प्रजापतिं च रुद्रं च, सृजामि च वहामि च ॥ ५० ॥ तेऽपि मायां न जानन्ति, मम मायाविमोहिताः । अथो पितृगणाश्चापि, य एते सूर्यवर्चसः ॥ ५१॥"
विष्णु कहते हैं कि प्रजापतिको तथा रुद्रको मैं ही पैदा करता हूं तथा मैं ही धारण करता हूं, और प्रजापति और रुद्र मेरी मायासे विमोहित हुए हुए मेरी मायाको नहीं जान सकते । इस कथनसे सिद्ध हो गया कि, इस वराहपुराण के रचनेवालेने ब्रह्मा शिवजी सूर्यादि सब देवोंसे विष्णुको ही बडा माना है।
हमको आश्चर्य होता है कि, यह क्या बात है ?, यहां पर सर्व देवोंको नीचे दरजेमें रख कर विष्णुको बढ़ाया और