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(१२७) अजब पता मिलता है, सो यह है कि-अगर ब्राह्मण भोग करना चाहे तो वेश्या उसके उस मनोरथको भी पूरा करे. ऐसे प्रायश्चित्तविधिके बतानेवाले पुराणके रचनेवालेमें धार्मिक भावनाका लेश भी हो ऐसा कौन कबूल कर सकता है ?.
देखो-इसी ६९ वे अध्याय के श्लोक--- " ततः प्रभृति यो विप्रो, रत्यर्थं गृहमागतः । स मान्यः सूर्यवारे च, स मन्तव्यो भवेत्तदा ॥५६ ।। एवं त्रयोदश यावन्मासमेवं द्विजोत्तमान् । तर्पयते यथाकामं, प्रोषितेऽन्य समाचरेत् ॥ ५७ ॥"
भावार्थ---इसके अनंतर जो ब्राह्मण रमण करने के निमित्त रविवार के दिन इन स्त्रीयों-प्रायश्चित्त लेनेवाली वेश्याओंके घर पर आ जाये तो उसका मान करके उसका प्रसन्नता पूर्वक पूजन करना योग्य है ॥ ५६ ॥ इस रीतिसे तेरह महिनों तक उत्तम ब्राह्मणोंको इच्छा पूर्वक तृप्त करती रहे और वह ब्राह्मण कदाचित् कहीं परदेशमें चला जाय तो इसी प्रकार दूसरे अन्य ब्राह्मणसे आज्ञा लेकर विघ्न रहित अपनेको प्रिय ऐसा जो ब्राह्मण रूपवान् हो और अभ्यागत हो उसको पूजे ॥ ५७ ॥
इत्यादि वर्णनसे वश्याओं को काममें लेने के नीच लोभसे भी पुराणके रचनेवाले मुक्त नहीं थे, यही कारण है कि, वैश्या जैसी नीचवृत्तिको करनेवालीओंको भी विष्णुलोंग प्राप्त होनेका प्रलोभन देकर अपनी सर्व प्रकारसे पूजा करानेके लिये प्रोत्साहन किया है.
श्रावक-भगवन् ! इस प्रकार वेश्याके प्रायश्चित्त अधिकारके सुननेसे तो अजब ही अनुभव मिलता है । भला !