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यकी बिलकूल अनभिज्ञता ही सिद्ध होती है, तिसरी मिथ्यां धता यह है कि तांत्रिकमतके असर से भ्रष्ट जैनसाधुओं से भिन्न होनेके लिये पीतaast कल्पना करते हैं, पीतवस्त्र विक्रमकी अठारहवी शताब्दिमें मात्र आंतरिक सामान्य बाब - तसे धारण किये हैं, उसको ईस्वीकी आठवी शताब्दिमें महाअसत्य दोपारोपण करनेमें हेतुरूप बतलाना यह कितनी अज्ञानताकी बात है ? सो विचारशील पाठक गण विचार करेंगे, " उस समय श्वेतांवर दिगंबर और स्थानकवासी मुख्य विभाग थें " यह बात लिख कर तो अच्छे अच्छे इतिहासझोंके भी कान काट लिये, वाह ! रे ! वाह ! इतिहासज्ञोंकी पंक्तिमें नाम रखनेवाले टक्कर ! वाह !, जिस वक्त जिस समाजका नाम निशान भी नहीं था उस समय में उस समाजके उल्लेख करनेवालेमें असत्य लिखनेका लेश भी डर हो ऐसा कौन बुद्धिमान् मान सकता है ?, जरा अक्बरके वख्तकी तवारीखकी गर्ज सारनेवाली ' आईन अकबरी' देखी होती तो भी मालूम हो जाता कि उस वख्त तो क्या मगर अक्बरके वक्तमें भी ढूंढकसमाज नहीं था, अस्तु, जिसने महामिध्यात्वके नशेमें सन्निपात ज्वरितकी तरह ज्यू आवे त्यूं प्रमाण गैर लिखना है उसको ऐतिहासिकप्रमाण मिले चाहे न मिले क्या प्रवा है ?, जैसे इसी किताबके ४४-४५ वे पृष्ठ पर लिख दिया है कि - " वसलीनगरभां ते वेणाने બૌદ્ધવિહારા અને જૈનમ દિશ અસ્તિત્વ ધરાવતાં હતાં અને તે સર્વ ધર્મ સ્થાનને બદલે અધમનાં સ્થાનો થઇ પડેલાં होवाथी " इत्याद्दि, यहां पर बुद्धिमान् लोक तुरत ही समज जायंगे कि ठक्कुरकी द्वेषप्रणालिकामें कितना गंदा पानी