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( ३१) " पुमानज्ञानतस्तावद्-भ्रमतेऽस्मिन् भवे मुने । यावत् कर्णगतं नास्ति, पुराणं शैवमुत्तमम् ॥ ३६ ॥ . किं श्रुतैर्बहुभिश्शास्त्रैः, पुराणैश्च भ्रमावहै ? । शैवं पुराणमेकं हि, मुक्तिदानेन गर्जति ॥ ३७॥ अश्वमेधसहस्राणि, वाजपेयशतानि च । कलां शिवपुरणस्य, नार्हन्ति खलु षोडशीम् ॥ ३८ ॥ नावत् स प्रोच्यते पापी, पापकृन्मुनिसत्तम ! । यावच्छिवपुराणं हि, न शृणोति सुभक्तितः ॥ ४० ॥ गंगाद्याः पुण्यनद्यश्व, सप्तपुर्यो गया तथा।। एतच्छिवपुराणस्य, समतां यान्ति न क्वचित् ॥ ४१॥ वेदेतिहासशास्त्रेषु, परं श्रेयस्करं महत् । शैवं पुराणं विज्ञेयं, सर्वथा हि मुमुक्षुभिः ।। ४९ ॥"
भावार्थ-जब तक उत्तम शिवपुराण कानमें नहीं पडा वहां तक अज्ञान भावसे भवर्मे भटकना होता है ॥ ३७ ॥ शैवपुराण मुक्तिप्रदान करके गारव कर रहा है वहां दूसरे भ्रमको वहन करनेवाले पुराणोंसे क्या मतलब ? ॥ ६८ ॥ हजारों अश्वमेध
और सैंकडो वाजपेय शिवपुराणकी सोलहवी कलाको भी नहीं प्राप्त होसकते हैं ।। ३९ ॥ शिवपुराणको भक्ति भावसे नहीं सुनता वहांतक पाप करते हैं, गंगानदी सप्तपुरी और गया शिवपुराणके समान नहीं हो सकते हैं ॥४१॥ वेद इतिहास और शास्त्रोंमें परम कल्याण करनेवाला शास्त्र मुक्तिकी कामनावालोंने शिवपुराणको ही जानना चाहिये ॥ ४९ ।।
देखिये, शिवपुराणकी कितनी तारिफ की है ?, अगर आयोपांत शिवपुराणका मनन ध्यानपूर्वक मध्यस्थ भावसे