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दानान्ये सानि साधुभ्यो, दत्त्वा मुच्यते पातकात् । यद्यदिष्टतमं लोके, यच्चास्ति दयितं गृहे ॥ ७४ ॥ तत्तद्गुणवते देयं, तदेवाक्षयमिच्छता । प्रियाणि लभते लोके, प्रियदः प्रियकृत्तथा ॥ ७५ ॥" __इत्यादि अनेक श्लोक दानके स्तुति के भोले लोकोंको सुनाकर ब्राह्मण लोकोने इस लोकमें सुखी रहनेका उपाय किया है, परंतु परलोकमें "बच्चे सहित स्त्री जो ब्राह्मणको देता है उसको जलदी स्त्री मिल जाती है, इत्यादि गपोडे उपर के श्लोकोमें जो हांके हैं, ऐसे गपोडे हांकनेसे " हमारी क्या गति होमी ? इस वातका जराभी खयाल नहीं किया है.
श्रावक-भगवन् ! ऐसे ऐसे आचरण करने वाले जहाँ पर देव हैं और ऐसे स्वार्थी ब्राह्मण गुरु हैं कि भक्तोंको पुत्र सहित स्त्री देनेकाभी उपदेश देते हैं, और सोना चाँदी गौ भेंस घोडा गाडी आदि दुनियांके सब असबाब ब्राह्मणको देनेसे महान् लाभ वर्णन करते हैं, और जिस धर्मके मानने. वाले अपने देवताओंको भोगीयोंसेभी बढकर भोग भोगनेमें आसक्त ( शास्रोंसे) जानते हैं तथा मांसाहारो सुनते हैं, फिर भी उनकी बुद्धि उन पवित्र बातों तक क्यों नहीं पहुंचती ? और विचार कर सत्यमार्गकी तरफ रजु क्यों नहीं होती ?
सूरीश्वरजी-महानुभाव ! तुम्हारा यह प्रश्न ठीक है, मगर यह बनाव गोपाल और स्वर्णकार जैसा है, जिससे वे लोग ऐसे व्युग्राहित हुए हुए हैं कि अपने खोटे मत को भी दुनियके सब मतोंसे श्रेष्ठ मानते हैं, जिन लोगोंके पुण्यो