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. (७६) " मायया लोभयित्वा तु, विष्णुः स्त्री रूपसंश्रयः ।
आगत्य दानवान् प्राह, दीयतां मे कमण्डलुः ॥ ७३ ॥ युष्माकं वशगा भूत्वा, स्थास्यामि भवतां गृहे । तां दृष्ट्वा रूपसम्पन्नां नारी त्रैलोक्यसुंदरीम् ॥ ७४ ॥ प्रार्थयानाः सुवपुष, लोभोपहतचेतसः । दत्वामृतं तदा तस्यै, ततोऽपश्यन्त तेऽग्रतः ॥ ७५ ।। दानवेभ्यस्तदादाय, देवेभ्यः प्रददेऽमृतम् । ततः पपुः सुरगणाः, शक्राद्यास्तत् तदामृतम् ॥ ७६ ॥
भावार्थ:--विष्णुने कपटाइसे स्वीका रूप धारके दैत्य लोगोंसे कहा कि मे तुम्हारे वश हुई हुई तुम्हारे घरमें रहुंगी, उस रूप सम्पन्न सन्नारीको देख कर लोभके वश हुए दानवोने उस स्त्रीको अमृत दे दिया, उसने दानवोंसे उस अमृतको लेकर देवताओंको दिया, उसके बाद शक्रादि सुरगण उस अमृतको पीते भये, इत्यादि बयानसे बुद्धिमान लोग समज जायेगे कि विष्णुमें देवपना होना तो दूर रहा परंतु सामान्य मनुष्यमें जो उत्तमताके लक्षण झूठ नहीं बोलना, कपट नहीं करना, आदि होते हैं वे भी नहीं थे. विष्णुपुराण पांचवा अंश अध्याय १० वे में
श्रीकृष्णने ब्रजवासिओंको गोवर्धनपर्वतकी पूजा करनेका उपदेश किया, उसमें मेध्य पशुको मारनेका भी लिखा है, श्री कृष्णके कहने मूआफिक व्रजवासीओंने गोवर्धनपर्वतकी दही दुध तथा मांससे पूजा की, देखो नीचे लिखे हुए श्लोक