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दृष्ट्वा पुरुषमत्युग्रं भीतस्ततस्त्रिलोचनः । अपक्रान्तस्ततो वेगात् विष्णोराश्रममभ्यगात् ॥ ७ ॥ त्राहि त्राहीति मां विष्णो !, नरादस्माञ्च शत्रुहन् । ब्रह्मणा निर्मितः पापो, म्लेच्छरूपो भयङ्करः ॥ ८ ॥ यथा इन्यान्न मां क्रुद्धः, तथा कुरु जगत्पते ! | हुंकारध्वनिना विष्णु - मोहयित्वा तु तं नरम् ॥९॥ अदृश्यः सर्वभूतानां योगात्मा विश्वहम् प्रभुः ।
तत्र प्राप्तं विरूपाक्षं सान्त्वयामास केशवः ॥ १० ॥ ततः स प्रणतो भूमौ दृष्टो देवेन विष्णुना ।
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विष्णुरुवाच
पौत्रो हि मे भवान् रुद्र !, कं ते कामं करोम्यहम् ॥ ११ ॥ " इस उपरके लेखसे महेश्वर निर्विवेकी तथा निर्दय सिद्ध हो गये, और ब्रह्माजी भी क्रोवी तथा निर्दयी साबित हुए, कारण कि क्रोध और निर्दयता के बगैर अपने पसीने से अत्युग्र भयानक पुरुषको उत्पन्न करके महेश्वरको मार डाल ऐसा कैसे कह सकते?, इस वास्ते ऐसे निर्विवेकी तथा महाक्रूर और निर्दयी हृदयवालोंके बीचमें परमात्मापनेका लेश भी साबित नहीं होता है, और शिवजी शक्तिहीन सिद्ध हुए, क्यों कि अगर शक्तिमान् होते तो ब्रह्मा के उत्पन्न किये हुए पुरुषसे डर कर क्यों भाग १, तथा विष्णुका शरण क्यों लेते ..
पद्मपुराण प्रथम सृष्टिखंड चतुर्थ अध्याय पत्र ८ वे में बयान है कि
विष्णुने स्त्रीरूप धारके तथा झूठ बोलके दैत्योंके पाससे अमृत लिया, वांचो नीचे के श्लोक