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(५६) उसमें अंधकदैत्य की उत्पत्ति ऐसे लिखी है कि मंदरपर्वत पर बैठे हुए अत्यंत पराक्रमी शिवके नेत्रोंको प्रेमवश पार्वतीने बंद किया, तब इनके नेत्र मूंदते ही अंधकार छवाया, इनके हाथके स्पर्शसे पार्वती हायसे मदका जल स्खलित होने लगा, और शिवके ढके हुए नत्रोंकी अग्निसे तप्त हो बहुत जल निकलने लगा, और वो ही जल कराग्र स्थानमें गर्भरूप हो गयो, जो गर्भ गणेशको भी क्षयदायक हुआ, क्रोधमें तत्पर और शत्रुका नाश था दूसरा विरुप जटिल दाढों मूछोंसे युक्त कृष्ण वर्ण बूरी सूरत रोमोंसे युक्त गाते हँसते और रोते जीभ काढते, तथा घनघोर शब्द करते हुए उत्पन्न हुआ, बस-अद्भूत दर्शनके उत्पन्न होते ही शिवने हंस कर पार्वतीसे कहा, नेत्र मींच कर इस कमको करके हे भार्ये ! तूं मुजसे क्यों भयभीत होती हो ?, तब गौरीने शिवके वचन सुन कर हंस कर नेत्र खोल दियें, तब प्रकाश होनमें अंधकार उत्पन्न होनेके कारण वह अन्ध नेत्र ही हुआ, इस प्रकारसे उसको देख कर गौरीने शिवजीसे कहा यह कौन है ? सत्य कहिए, किसने किस निमित्त, इसको उत्पन्न किया है , किसका पुत्र हैं ?, शिवाके वचन मुन कर शिवजीने कहा कि यह अद्भूत कर्मचंड उत्पन्न हुआ है, तुह्मारे नेत्र मूंदनेसे पसीना उत्पन्न होनेके कारण यह उत्पन्न हुआ है, इसका नाम अंधक होगा, सो यथानुरूप मै ही इसका कर्ता हूं इत्यादि बहूत वृत्तांत है, आखर अंधकका और शिवजीका बड़ा भारी युद्ध हुआ इत्यादि बयान देखनेसे शिवजी विष्णु तथा ब्रह्माजीकी कर्तृत अच्छी तरहसे मालूम हो जायगी.
शिवपुराण धर्मसंहिता अध्याय ९ वें में वर्णन है कि