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तो महादेवजी कृष्णजीको वरदान माँगनेकी प्रेरणा करते हैं और इधर - सनत्कुमारके तेरहवें अध्यायमें ब्रह्मा विष्णु और महेश मैं ही हूं ऐसा कहते हैं, अब इन परस्पर विरुद्ध दोनों पाठोंमेंसे किसको सच्चा कहना और किसको असत्य कहना ? सो बात बुद्धिमानोंको विचारनेकी है.
शिवपुराण धर्मसंहिता अध्याय तीसरे में उल्लेख किया है कि-- तारकाक्ष विद्युन्माली और कमलाक्ष इन दैत्यों ने बडी भारी तपश्चर्या की, जिससे प्रसन्न होकर ब्रह्माजीने उनकों बर माँगने को कहा तब उनोने हाथ जोडकर कहा कि हे भगवन् ! हम पराक्रमवालोंका ऐसा स्थान कोई नहीं है जो शत्रुओंसे अधृष्य हो और जहां हम सुखसे निवास कर सकें, अब तारकाक्षने कहा जो देवताओंसे अभेद्य हो ऐसा विश्वकर्मा हमारे वास्ते सुवर्णका स्थान बनावें, विद्युन्मालीने महाकठीन लोह दुर्ग की और कमलाक्षने चाँदी के दुर्गकी प्रार्थना की, इसके बाद वे पराक्रमी दैत्य फिर कहने लगे, हे देव ! हॅम दिव्यलोकमें ही अपने स्थानकी ईच्छा करतें हैं अन्यत्र नहीं, तब ब्रह्माजीने विश्वकर्मा से कह कर उनके वास्ते तीन पुर बना दिये, और उन तीनों पुरोंमें दैत्यलोक रहने लगे, तथा सकुटुंब देवतादिकों का उन दैत्योंने बुरा हाल किया तब देवता लोक शिवजीके शरण गये और स्तुति करी, आखर शिवजीने उन तीनों नगरोंको स्त्रीओं तथा वालबच्चां सहित भस्म कर दिया, इस वर्णन से शिवजीमें अधर्म तथा निर्दयता सिद्ध होती है, क्यों कि सामान्य रीतिसें जरा भी धर्म समजता हो उससे भी ऐसा कार्य नही हो सकता है,