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(३८) मनुष्यादि, इसमेंसे कोई भी यहां वा अन्य क्षेत्रमें शरीर त्याग करे तो वह विना हो तप जपादि किये मुक्त होता है ॥२३॥ कर्म बंधनमें पडा हुआ देही-जीव यहां--काशीक्षेत्रमें प्राणका त्याग करनेसे मुक्त होजाता है, इसमें ज्ञानकी और ध्यानकी कुछ अपेक्षा नहीं ॥ २४ ॥ न मेरी न स्वजनोंकी यहां अपेक्षाकी जरुरत हैं जैसा कुछ भी हो किसी प्रकार प्राण त्याग करनेस अवश्य मोक्ष हो जाती है इसमें संदेह नहीं ।। २५ ॥ वांचो श्लोक
" अपापश्च सपापो वा, कर्मबंधगतोऽथवा । अत्र चेच मृतःस्याश्च, मोक्षगामो न संशयः ।। २२॥" स्वेदजश्चाण्डजो वापि, ह्युद्भिदोऽथ जरायुजः । मृतो मोक्षमवाप्नोति, अत्रोन्यत्र तथा कचित् ॥ २३ .. कर्मवन्धगतो यो वै, देही मोक्षाय कल्पते । ज्ञानापेक्षा न चात्रवै, ध्यानापेक्षा न कर्हिचित् ॥ २७ : नामापेक्षा न चात्रैव, स्वजनानां तथा पुनः । यथा तथा मृतः स्यान्चेन्-मोक्षमामोति निश्चितम् ॥ २३ ॥
३९-४० - और ४१ वा श्लोक पढो-वैकुंठपति नारायण लक्ष्मी और देवर्षिओं सहित ब्रह्मा वसु और सूर्य ॥३९॥ देवराज इंद्र तथा और भी दूसरे देवता इस स्थानमें मेरा व्रत धारण कर वें महात्मा मेरी उपासना करते हैं ॥ ४० ॥
और भी महायोगी अपना वस छिपाये, महावत लिये, अनन्य मन होकर मेरी सदा उपासना करते हैं ॥४१॥ इन उपरके श्लोक-२२-२३-२४ और २५ वा को कौन बुद्धिमान् सत्य मानेगा ?, क्यों कि इन