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१३ -वा मिथ्यात्व (उलटी श्रद्धान) भी बड़ा जबरदस्त दूषण है सो भी प्रभुमें नहीं होता.
१४-अज्ञान नामक दोष भी नहीं होता हैं, तथा
१५-निद्राका होना भी उनमें नहीं है अगर हो तो वह प्रभु नहीं, कारणके सोते हुए जीव विलकूल अचेतनसी दशा भोगते हैं और प्रभु तो सर्वदा सर्वज्ञ है उन्हें निद्रा होही कैसे सकती है, दूसरा कारण दर्शनावरणीयकर्मसे निद्रा आती है
और वह कर्मक्षय करे बाद ही केवली भगवान् बनते हैं तो फिर उनमें कारणके अभावसे कार्य कैसे हो सकता है ?
१६-वा दूषण अविरति यानि किसी भी वस्तुका परित्याग न हो उसका नाम अविरति है सो भी परमात्मामें नहीं होता.
१७-चा दूषण राग है और
१८-वा दूषण द्वेष, ए दोनों भी परमात्मामें न होने चाहिये जिसमें ये अठारह दृषण न होवे वह परमात्मा हो सकता है, मुख्यतया जिसमें राग और द्वेष न होवे उनमें ये अठार. हमें से एक भी दूषण नहीं होता यह अटल सिद्धांत है, मात्र लोगोंको स्पष्टतया समजानेके लिये अठारह खोले गये, इससे हरएक भाविक मनुष्यको परिक्षा पूर्वक जिस प्रभुका स्वरूप राग और द्वेष रहित हो उसका भजन करना चाहिये, क्यों कि ऐसे वीतरागी प्रभुके ध्यानसे आत्मा वीतराग हो सकता है, न कि राग द्वेषसे भरे हुए के ध्यानसे, दरिद्रकी सेवासे ईश्वर नहीं बन सकते हैं, ईश्वरकी सेवासे ही ईश्वर होते हैं ऐसे