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तक देह रहे ग्रहण करते हैं, तो फिर उनका अंतराय टूटा है ऐसा कैसे कह सकते हैं ?
सूरश्विर-- भाई ! ऐसी बात है कि प्रभु चाहे सर्व वस्तुका त्याग कर देवे, इससे उनको अंतराय है ऐसा नहीं कहा जा सकता, जैसे किसी धनाढ्यके वहां सब वस्तुएं तैय्यार हैं मगर वैराग्यसे उसने घरकी बहुतसी वस्तुओंका त्याग किया हैं तो क्या धनाढ्यको उन वस्तुओंका भोगांतराय है ऐसा कह सकते हैं १, कदापि नहीं, ऐसे ही तीर्थंकर प्रभु के विषय में समझने का है.
६ - छठ्ठा हास्य नामका दूषण जिसमें हो वह परमात्मा नहीं हो सकता है, कारण कि हाँसी किसी अपूर्व वस्तुके देखने से या सुननसे होती है, सो तो परमात्मा त्रिकालज्ञ होनेसे किसी भी नवीन वस्तुका अनुभव नहीं करते, तो फिर हाँसी कैसे हो सकती हैं ?, और प्रभुमें हास्य मोहनीयके क्षय होनेसे भी छट्टा दूषण नहीं हो सकता है, जिसमें यह छट्ठा दूषण हो, उसे परमात्मा नहीं जानना.
७ - सातवा दूषण रति [खुशी] है, किसी पदार्थके लाभ से जैसे गृहस्थोंको होती है सो परमात्मामें नही होती हैं, और
८- अरति नाम दिलगीरीका हैं, जैसे नुकसान होजाने से लोगों को होती है सो भी परमात्मामें न होना चाहिये, क्यों कि यह भी एक वडा दूषण है, परमात्मा के ध्यान करनेवाले योगियों को भी सुखदुखमें समान रहते हुए देखते हैं तो फिर परमात्मा किसी वस्तुके नुकसानसे दिलगीर कैसे हो सकता है ?, और जिसने अपनी खीके वियोगमें या किसीके