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श्रित प्रश्नके जवाबमें अनादि मगर एक खासको लेकर प्रश्न होतो आदि कहना उचित होगा, मतलब-इस दुनियामें कोई भी ऐसा दिन नहीं होता के सिद्धपद खाली हो या कोइ न कोइ तीर्थकर प्रभु न हो, इससे इश्वरपदकी अनादिता सिद्ध हुई, इस पदके पुण्यापुण्यकृत भेद होनेसे दो प्रकार होते हैं, एक तीर्थंकर और दूसरे सामान्य केवली, वे दोनों ही देह छोडकर शिवस्थानमें गये बाद 'सिद्ध' नामसे कहे जाते हैं. प्रथम तीर्थकर भगवन् रूप परमात्माका भेद जबरदस्त पुण्योदयसे मिलनेसे ऐसे परमात्मपदधारी इस भरतभूमिमें वीश कोडाकोडी सागरोपम काल प्रमाण उत्सर्पिणी अवसर्पिणी रुप दो कालोमें चोइस २ होते है, सबब यह है कि- इससे अधिक जीव इतने जबरदस्त पुण्यवाले नहीं हो सकते हैं.
श्रावक-स्वामिन् ! इससे अधिक न हो सके इसमें तो ऐसा समाधान मान सकते हैं कि जैसे कठीन परीक्षाके पसार करनेवाले लडके बहुत थोडे होते हैं, और ऐसी डीग्रीएं मौजुद हैं कि जिस डीग्रीको वर्षमें अमुक देश आश्रित एक ही पास करता है, परंतु किसी वर्ष में एकभी पास नहीं होता ऐसा भी हो जाता है, इसीतरह कभी चोवीससे कम क्यों न हो सके ?
सूरीश्वर महानुभाव ! जैसे रात्रि दिवसके कालको एकत्र कर उसके घंटे-कलाक गिने जावे तो चोइस ही होते हैं कमोवेश नहीं होते, इसीतरह यह भी एक ज्ञानिदृष्ट ऐसा ही अनादिकालसे स्वाभाविक प्रचलित नियम है, कि एक अवसर्पिणीकालमें चोइस ही तीर्थंकर हो सकते हैं, इसस अधिक