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आलोचनात्मक मूल्याकत
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--मानो गंगा समुद्र से जा मिली हो, स्वर्णसिदि रससिद्धि से मिल गई हो; मानो केवलज्ञान को ऋठि युद्ध से, विष्यवाणी परमार्थ से जा मिली ही; मानो पंडित समूह से श्रेष्ठ कविद्धि मिल गई हो; भव्य मुनियों नो निहदि सिम गई हो, गाजिर पूर्णचन्द्र को सम्पूर्ण कान्ति । मानो अरहन्त से श्रेष्ठ मुक्ति लक्ष्मी जा मिली हो, या गुणवान् को मानो बहुगुण संसि मिल गई हो।
राम रोती हुई मंदोदरी को समझाते हैं, शोक विह्वन इन्द्रजीत को धीरज बंधाते हैं, रावण के समस्त भाइयों को बुलाकर, नागरिकों को शंका दूर कर, महामंत्रियों से विचार-विमर्श कर, विघ्नकारी तस्वों का उन्मूलन कर, जिनेन्द्र का अभिषेक कर, यज्ञ और विविध दान कर, शत्रु और मिन के प्रति मध्यस्थ भाव धारण कर, सामन्तों को अपने पक्ष में यथायोग्य निमंत्रित कर, गृहों और ब्राह्मणों आदि की पूजा कर, धर्म का पालन कर और अधर्म से डरकर, राम विभीषण को लंका के राज्य पर आसीन कर देते हैं, उन्हें राजपट्ट बांध देते हैं। राम के विजयाराम तथा सात और पुत्र होते हैं। पश्चात् राम दुस्वप्न देखते है। वे शान्ति विधान करते हैं । लक्ष्मण की मृत्यु से राम शोक मग्न हो उठते हैं और अंत में शिवगुप्त मुनि से थावक व्रत और फिर दीक्षा ग्रहण कर मोक्ष प्राप्त करते हैं।
राम का पन्तम्-हनुमान् और सुग्रीव को शरण देने के कारण, जब बालि युस की चुनौती देता है तो राम की स्थिति 'इस मोर कुआं और उस ओर खाई' वाली हो जाती है। इधर बालि उधर रावण । एक तो सूर्य और फिर ग्रीष्म काल ! एक तो तम और दूसरे मेघजाल ! एक तो अभव और फिर कवच से युभत ! एक तो यम और फिर पूर्णकाल ! एक तो साप और दूसरे विषली दृष्टि ! एक तो शनि और दूसरे वष्टि | एक तो दुर्धर दशमुख विरुद्ध है, और प्रसरे दालि क्रुद्ध है!"मित्र क्षीण है और शत्रु बलवान हैं।"
(7514) हनुमान् सीता की कुशलवार्ता के प्रसंग में राम से कहते हैं
"णबवणकता , व वसंतह । सुमा कोइस, धीरतें हस। जिन गुग जापा, तिह तुरा जाणह । तुह सा राणी, वंति समाणी। भाहं वन्चर, लगु वि ण मुच्चइ ।
कुल हर बुत्ति व, धम्मपवित्ति au" (74/1) -जिस सरह नववन से सुन्दर वसंत को कोयल याद करती है, उसी तरह वह तुम्हें याद करती है। जिस तरह जानकी धीरता से धरती और जिनगुण को जानती है वैसे ही तुम्हें जानती है। तुम्हारी पह रानी शांति के समान भव्यों को अच्छी लगती है। वह कुलधर की एक क्षण को भी नहीं छोड़ी जाती युक्ति और धर्म की पवित्रता की तरह है।
सीता-पुष्पदम्त के अनुसार सीता रावण की पुत्री है. पूर्वभव की, विद्यासाधना में रत मणिवती नाम की। पूर्वभव में काम पीड़ित रावण ने उसका ध्यान विचलित करना चाहा था, तब तपस्विनी पन्या ने यह निवान गांधा था कि यह अगले जन्म में इस कामान्ध की बेटी के रूप में जन्म ले और इसकी मौत का कारण बने। अनिष्ट की आशंका से रावण जैशव अवस्था में उसे मंजूषा में रखवाकर मारीच के जरिए जनकपुरी के उद्यान में गड़वा देता है । वनपास लाकर उसे राजा जनक को देता है । जनक उसे बेटी की तरह पालते हैं । सौता मानिन्ध मुन्दरी है। उसकी सुन्दरता पर कवि सारे सौन्दर्य-उपमान निछावर कर देता है। धनुष की प्रत्यंचा चढ़ा देने पर, राम से उसका विवाह होता है।