Book Title: Madanjuddh Kavya
Author(s): Buchraj Mahakavi, Vidyavati Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 14
________________ २० मदनजुद्ध काव्य प्रतीकात्मक कथा के भण्डार हैं। वसुदेवहिण्डी और समरादित्यकथा में भी 'मधुबिन्दु' नामक प्रतीक कथा उपलब्ध है। इस कथा का रूपक इतना व्यापक है कि उस पर कई चित्र बन चुके हैं। कई गीतों में भी उसका सार लिया जा चुका है। यह कथा मनुष्य को यह शिक्षा देती है, कि संसार के विषय - भांगों का परिणाम इतना भयंकर होता है, कि अनन्तकाल तक वह इसी संसार में भ्रमणशील बना रहता है। यह कथा भव्यजनों के मोह को दूर करने के लिए एक उत्कृष्ट उदाहरण १ इस रूपक शैली को और भी परिपुष्ट बनाने का कार्य आचार्य उद्योतनसूरि की "कुवलयमाला कथा" को जाता हैं। यह रचना प्राकृत भाषा में प्रणीत हैं, जिसको कवि ने शकसंवत् 700 में एक दिन शेष रहने पर पूर्ण किया था । इसमें चारों कषाय एवं मोह के दुष्परिणाम और उनसे उछार का उपाय सुन्दर रूपक शैली में प्रस्तुत किया गया है । प्रतीकात्मक शैली को चरम विकास पर पहुँचाने वाले सिद्धर्षि गणि हैं, जिन्होंने संस्कृत में उपमितिभवप्रपंच कथा" का सृजन किया। उन्होंने भवभ्रमण का प्रपंच (विस्तार) दिखाकर मानव की दुष्प्रवृत्तियों का रूपक प्रस्तुत कर उनसे दूर रहने की ओर मानव का ध्यान आकृष्ट किया तथा सद्वृत्तियों को अपनाने का उपदेश दिया । उन्होंने उक्त ग्रन्थ में पात्रों की विशाल कतार खड़ी कर दी हैं। उनके सभी पात्र भावात्मक हैं, जो कर्मानुसार भ्रमण करते रहते हैं। सिद्धर्षि गणि का यह ग्रन्थ भारतीय रूपक - साहित्य में अनुपमेय माना गया है । काम सम्बन्धी प्राचीन काव्य-परम्परा भारतीय वाङ्मय के सबसे प्राचीन ग्रन्थ वेद माने गए हैं। किसी भी काव्यपरम्परा के खोन सर्वप्रथम इन वेदों में ही खोजने के प्रयास किए जाते हैं। ऋग्वेद के दशम मण्डल ( 10/29/4) में "काम" की उत्पत्ति का उल्लेख मिलता हैं । अथर्ववेद में भी "काम" और उसके बाण की चर्चा (3 / 25 ) आई है, किन्तु वेदों में उसकी देवत्व रूप में स्थापना नहीं पाई जाती। किन्तु पुराण साहित्य में उसका विस्तार से वर्णन मिलता है। शिवपुराण में उसकी उत्पत्ति, देवत्व रूप में स्थापना एवं उसके शरीरविहीन होने का उल्लेख उपलब्ध होता है । — पालि साहित्य के सुत्तनिपात में बुद्ध और मार ( कामदेव ) के संघर्ष का उत्कृष्ट कथानक आया है और उसकी विजय ने बुद्ध को मारजित की उपाधि प्रदान की । तत्पश्चात् जातककट्टु वण्णणा (4.5वीं सदी) में "मारपराजय" में 'काम और बुद्ध क्रे संघर्ष को अतिरंजित रूप में दिखलाया गया हैं एवं अंत में बुद्ध की विजय और काम की पराजय से देवों, नागों और सुपर्णो द्वारा बुद्ध की स्तुति की गई ।

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