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२०-२१ ] लब्धिसार
[ १७ समाधान- नहीं होती, क्योंकि भवसम्बन्धी संक्लेशके कारण शेषगतियोंके बन्धके प्रति अयोग्य ऐसे सातवीं पृथ्वीके नारकी मिथ्यादृष्टिके तिर्यचगति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्रको छोड़कर सदाकाल इनकी प्रतिपक्षस्वरूप प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है तथा विशुद्धिके वशसे ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका बन्धब्युच्छेद नहीं होता, अन्यथा उस विशुद्धिके वशसे ज्ञानावरणादि प्रकृतियोंक भी बन्धन्युच्छित्तिका प्रसंग प्राप्त हो जावेगा, किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि वैसा माननेपर अनवस्थादोष पाता है ।
प्रागे मनुष्य ष तियंचतिमें प्रथमोपशमसम्यक्त्व के प्रभिमुख मिथ्यावृष्टि जीवके द्वारा बध्यमान प्रकृतियोंको तथा मनुष्यगतिमें अप्रमत्तगुणस्थान में बंधनेवाली २८ प्रकृत्तियों को दो गाथाओं में कहते हैं
घादिति सादं मिच्छं कसायहस्सरदि भयस्स दुगं । अपमत्तड़वीसुच्चं बंधति विसुद्धणरतिरिया ॥२०॥ देवतसक्राणभगुरुचउक्कं समचउरतेजकम्मइयं । सागमा दिदी पिर दिछरिणमिणमडवीसं ॥२१॥
अर्थ-विशुद्ध ( सम्यवत्वके अभिमुख प्रायोग्यलब्धिमें स्थित मिथ्यादृष्टि ) मनुष्य या तिर्यंच तीन घातिया (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय) कर्म सातावेदनीय, मिथ्यात्व, कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भयद्विक ( भय-जुगुप्सा ), अप्रमत्तगुणस्थानसम्बन्धी २८ और उच्चगोत्रको बांधता है । देवचतुष्क, त्रसचतुष्क, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, समचतुरस्त्रसंस्थान, तैजसशरीर, कार्मराशरीर, प्रशस्तविहायोगति, पंचेन्द्रियजाति, स्थिरादि ६ और निर्माग्ग ये २८ प्रकृतियां अप्रमत्तगुणस्थानसम्बन्धी जानना ।
विशेषार्थ-प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख, प्रायोग्यलब्धिमें जिसने ३४ बन्धापसरणोंसे ४६ प्रकृतियोंकी बन्धन्युच्छित्ति कर दी है ऐसा विशुद्ध मिथ्यादृष्टि गर्भजसंज्ञीपंचेन्द्रिय पर्याप्ततिर्यच अथवा मनुष्य, पांचों ज्ञानावरणीय (मति-श्रत-अवधि१. रणवरि सत्तमपुढविणेरइयमस्सियूण तिरिक्ख गइ-तिरिक्खगइ पापोग्गाणुपुथ्वीउज्जोब-रणीचा
मोदाणं बंधवाच्छेदो रास्थि । (ज.ध. पु. १२ पृ. २२३; गो. क. गा. १०७ ) तिरिक्खगईतिरिक्खगइपानोग्गाणुपुथ्वीणीचागोदारण... एस्थ धुवबंधित्तादो। (ध.पु. ८ पृ. ११०, ज,घ.पु.
१३ पृ. २२६) २. घ. पु. ६ पृ. १४३-१४४ 1