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॥ परमात्मने नमः ||
आचार्य कुंदकुंददेव
अरूहा सिध्दायरिया उज्झाया साहु पंच परमेट्ठि | ते वि हु चिट्ठदि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं ॥ १
मंगलं भगवान् वीरो मंगल गौतमो गणी । मंगलं कुंदकुंदार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥ अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानांजनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरुवे नमः ॥
भारतीय संस्कृति मूलतः आध्यात्मिक संस्कृति है । इस संस्कृति का सार और अन्तःप्राण आत्मदर्शन ही है । अनादिकाल से प्रौढ़, दूरदर्शी और विवेकी पुरुषों का प्रयत्न इसी अन्तःप्राण की प्राप्ति के लिए अनवरतरूप से चला आ रहा है। वे बाह्य प्राणों की कीमत पर भी इस अन्तः प्राण - शुद्धता को प्राप्त करने की अभिलाषा रखते हैं । विशेष प्रयत्न से प्राप्त इस आत्मानंद के सामने विश्व का कोई भी भौतिक आनन्द उन्हें आकर्षक नहीं लगतां । -