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आचार्य कुंदकुंददेव
अभिप्राय अनेक ज्ञानी महामनीषियों का स्वानुभूत विषय हैं । जिज्ञासु पात्र जीवों को जीवन में इस विधा को साक्षात् अनुभव करके निर्णय करना चाहिए । यहाँ अन्धानुकरण और आज्ञा को स्थान नहीं है, परीक्षा और प्रत्यक्ष अनुभव की प्रधानता है । अध्यात्म में परावलम्बन को कोई स्थान नहीं है ।
सामान्यतः आत्मा की तीन अवस्थाएं होती हैं- बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा ।
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बहिरात्मा अवस्था में जीव अपने निज ज्ञांता - दृष्टा स्वभाव को अर्थात् ज्ञाननिधि भगवान आत्मा को भूलकर अचेतन शरीरादि परपदार्थों में आत्मबुद्धि करता है । इस कारण चतुर्गतिरूप संसार में परिभ्रमण करता हुआ अत्यंत असह्य और भयंकर दुःख का अनुभव करता है । दुःख सहा तो नहीं जाता, परवशता से भोगता है। करे भी क्या ? अपने अज्ञान से दुःख भोगना पड़ता है, अज्ञान छोड़े बिना दुःख से छुटकारा भी कैसे और क्यों हो ?
कभी कहता है रोगी शरीर से दुख है, कभी बोलता है प्रतिकूल वातावरण व पदार्थों से दुःख हो रहा है। कभी कदाचित् शास्त्र के पढ़कर भी मानता रहता है- मुझे कर्म हैरान कर रहे हैं। दुःख वास्तविक कारण का यथार्थ ज्ञान न होने से व्यर्थ प्रलाप करता रहता है । सुख के सच्चे उपाय को समझता नहीं, यह बहिरात्म अवस्था दुःख का मूल कारण है ।
इस अज्ञान से मुक्त होकर जब जीव निज शुद्धात्मस्वरूप का यथार्थ श्रद्धान ज्ञान करता है, तब अन्तरात्मा बनता है। शुद्धात्मस्वरूप का अनुभव करता है। शुद्धात्मरसिक होने से मोक्षमार्गी होता