Book Title: Kundakundadeva Acharya
Author(s): M B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
Publisher: Digambar Jain Trust

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Page 102
________________ आचार्य कुंदकुंददेव वहाँ पैदल रास्ता निर्माण करने की लोक कल्याणकारी भावना भी नहीं थी । लौकिकरूप से सुखदायक कुछ कार्य करने की भावना- अभिलाषा अलौकिक महापुरुषों को होता ही नहीं। वास्तविक तथा शाश्वत सुख के अविनाशी उपाय का जनसामान्य को ज्ञान कराने का अंतरंग अभिप्राय उनके विशाल करुणामय मनो-मंदिर मैं हमेशा बना रहता है। अविनाशी आत्मकल्याण के सामने यह अलौकिक करुणामय विचार भी गौण हो जाता है। इसलिए पीछे मुड़े बिना और उस कुंदाद्रि की ऊँचाई की गिनती न करते हुए पर्वत पर गये । १०४ अहो ! आश्चर्यकारक दृश्य ! वह पर्वत इन महामुनीश्वरों के पाद स्पर्श से मानो “कुन्दन" पर्वत हो गया। पर्वत पर सुवर्ण वेष्ठित माणिक्य रत्न की तरह जिनालय में शोभायमान भगवान पार्श्वनाथ की वीतरागी मनोहर मूर्ति को देखा । आचार्यश्री ने भक्तिभाव से भगवान के चरणों की वन्दना की। वहीं तपस्या के लिए खड़े हो गएसाधना / सिद्धि में मग्न हो गए । : आचार्यदेव के पीछे-पीछे ही साघु समूह और अपरिमित श्रावकसमुदाय पर्वत पर चढ़कर उस दिव्य मनोहर दृश्य को देखकर आश्चर्यचकित हुआ। उस पर्वत-शिखर पर सदा जलपूरति, धर्मतीर्थ सदृश धवल वर्ण से शोभायमान, विशाल सरोवर को देखा । यह सरोवर आज पापविच्छेदक सरोवर नाम से प्रसिद्ध है। इस गिरि शिखर के ऊपर से सूर्योदय और सूर्यास्त को और संहय् पर्वत की विपुल श्रेणियों की सुन्दरता को अपने जीवन में एक बार अवश्य देखना ही चाहिए ऐसा यह मनोहारी दृश्य है।

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