Book Title: Kundakundadeva Acharya
Author(s): M B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
Publisher: Digambar Jain Trust

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Page 107
________________ १०६ - आचार्य कुंदकुंददेव इस अपूर्व और अलौकिक ग्रंथ की रचना पूर्ण होने से अब आचार्यश्री का जीवन पूर्ववत् सामान्य बन गया । इस ग्रन्थ की समाप्ति के पहले वे क्या करते थे, कहाँ रहते थे-इन सब बातों की उन्हें परवाह नहीं थी । आत्मलीनता से बाहर आने पर केवल ग्रंथ रचना के कार्य में ही सतत संलग्न रहते थे। ___ ग्रंथ रचने का निर्णय किया था इसलिए यह कार्य हुआ ऐसा नहीं है, आचार्यदेव के आत्मा की अद्भुत अपार अचिंत्य शक्ति से अर्थात् उनके पुण्य और वीतरागमय पवित्रता से यह कार्य हुआ है, अन्यथा यह असम्भव था । यह ग्रन्थ रचने का कार्य होनेवाला था इसलिए सब संयोग-निमित्त जुट गये । वास्तविक देखा जाय तो प्रत्येक कार्य और बाह्य संयोग का ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिक संबंध रहता है। अन्यथा ये भावलिंगी मुनिराज ग्रंथ रचना में इतने व्यस्त कैसे रहते? यह ग्रंथकृति अर्थात् विश्व का एकमेव अद्वितीय चक्षु, संसारी जीवों को सिद्ध बनानेवाला भरतक्षेत्र का शब्दब्रह्म, सर्वजनकल्याणकारक "समयसार" है। जीव मात्र का वास्तविक हितकारक और भवतारक इस कृतिरत्न की रचना केवल दो सप्ताह में अर्थात् चैत्रशुदी प्रतिपदा से प्रारंभ होकर चैत्रशुदी पौर्णिमा पर्यन्त के कालावधि में पूर्ण हुई। अपनी दीर्घायु में ऐसे अनुपम ग्रंथरत्न विश्व को भेंटस्वरूप देने के कारण आचार्य कुन्दकुन्दन देव जगज्जीवों के मनोमंदिर में 'यावत् चंद्र-दिवाकरौं' ससन्मान विराजमान रहेंगे।

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