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प्राचार्यं कुंदकुंददेव
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अथवा व्य की अवस्थाओं को अपनी मानता है, वह पिरसमय है । इस जगत को अनादि से कामो बंधकी कथा श्रुत है परिचित और अनुभूती है। सरन्तु एकत्वविभक्त ज्ञायक आत्मा की कथा इस ज्ञाने कभी सुनीत नहीं जाती नहीं। और अनुभव में भी नहीं ली। भितः इस ज्ञायक - आत्मा की कथा को निज वैभव से कहूँगा ऐसी प्रतिज्ञा आचार्य देव ने की है। आत्मा अप्रमत्त भी नहीं है और प्रमत्त भी नहीं है । ये दोनों अवस्थाएँ परद्रव्य के निमित्त से होती हैं। आत्मा स्वभाव से ज्ञायक अर्थात् ज्ञाताः सत्रि है । ज्ञायक में ज्ञेयकृत अशुद्धता. भी नहीं हैट का
जीवाजीवाधिकारणः आत्मस्वभाव में स्पर्श रस, गंध, वर्ण और शब्द नहीं हैं आत्मा केवल चेतनस्वभावी है । कोई अज्ञानी राग-द्वेषादि, परिणामों को, कोई कर्म फल को, कोई शरीर को आत्मा मानते हैं, परन्तु इनमें से कोई भी जीव नहीं हैं। ये सभी पुद्गल द्रव्य की अवस्थाएँ हैं। जीवस्थान और गुणस्थान आदि व्यवहार से जीवन कहे गये हैं, क्योंकि व्यवहार के बिना निश्चय का कथन शक्य नहीं है। इन सभी आंगन्तुक भावों की परित्याग करके "मैं केवल उपयोग मात्र ज्ञानदर्शन स्वरूप (आत्मा हूँ। ऐसा निर्णय करना चाहिए। | प्रकर्ता कर्माधिकार इसमें कहा है किं जीव और अजीव दोनों स्वतंत्र हैं । तथापि जीव परिणामों का निमित्त पाकर पुद्गलमय कार्माण वर्गणायें अपने आप कर्मरूप परिणमित होती हैं और पुद्गल कर्मोदय का निमित्त पाकर जीव क्रोधादिन विकाररूप परिणमित होता है । ऐसा होने पर भी जीव और अजीव (पुद्गलमय कम) दोनों पूर्ण स्वतंत्र हैं जीवं कर्म: के किसी गुण का उत्पाद नहीं कर सकती