Book Title: Kundakundadeva Acharya
Author(s): M B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
Publisher: Digambar Jain Trust

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Page 126
________________ आचार्य कुंदकुंददेव सहित निर्दोष रूप से सम्यक्त्व का पालन करना सम्यक्त्वाचरण चारित्र कहलाता है । संयमाचरण सागार और अनगार भेद से दो प्रकार का है। ग्यारह प्रतिमाओं में विभक्त गृहस्थों के संयम को सागार संयमाचरण कहते हैं और मुनियों के आचरण जो पंचमहाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति आदि उत्कृष्ट संयम रूप होता है, वह - अनगार संयमाचरण कहलाता है । १२८ सूत्तपाहुड़ :- इसमें २७ गाथायें हैं जो अरहंत द्वारा निरूपित और गणधरों से रचित हैं उसे सूत्र कहते हैं। सूत्र में जो कहा गया है, उसे आचार्य परम्परा द्वारा प्ररूपित समझना चाहिए। सूत्रों को न जानने वाला मनुष्य नाश को प्राप्त होता है । उत्कृष्ट चारित्र का पालन करनेवाले मुनि यदि स्वच्छन्द भ्रमण करते हैं तो वे भी मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाते हैं । तिलतुष मात्र भी जिसके पास परिग्रह नहीं होता है और जो पाणि-पात्र में भोजन करते हैं, वे मुनि हैं। जिनशासन में तीन ही लिंग हैं-निर्ग्रन्थ (दिगंबर) साधु, उत्कृष्ट श्रावक और अर्जिका; मोक्षमार्ग में इन तीनों को छोड़कर और कोई लिंग नहीं है। बोधपाहुड़ :- इसमें ६२ गाथाओं के द्वारा आयतन, चैत्यगृह, जिनप्रतिमा, दर्शन, जिनबिम्ब, जिनमुद्रा, ज्ञान, देव, तीर्थ, अरहंत और प्रव्रज्या का स्वरूप बताया है । मुनि-चर्या का मार्मिक वर्णन किया गया है। जो शत्रु-मित्र में, निन्दा - प्रशंसा में, लाभ-अलाभ में, सोना-मिट्टी में समभाव रखते हैं और जो तिलतुषमात्र भी परिग्रह नहीं रखते वे ही साधु कहलाते हैं । अन्त में अपने आपको भद्रबाहु का शिष्य बताकर उनका जय-जयकार किया है ।

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