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आचार्य कुंदकुंददेव
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ज्ञायक
:- प्रमत्त- अप्रमत्तादि अवस्थाओं से रहित परमशुद्ध- स्वभावी केवल - ज्ञानस्वभावी भगवान् आत्मा, शुद्धात्मा, शक्तिरूप परमात्मा, ग्रन्थाधिराज समयसार का प्रतिपाद्य विषय ।
ज्ञानी :- जो आत्मा कर्म-नोकर्म परिणामों को मात्र जानता है, कर्त्ता नहीं, ज्ञान में ही अपनी सत्ता स्वीकार करनेवाला अन्तरात्मा । ***
"देखो! शास्त्राभ्यास की महिमा ! ! जिसके होने पर जीव परम्परा से आत्मानुभव को प्राप्त होता है, मोक्षमार्ग रूप फल को प्राप्त होता है। यह तो दूर ही रहो, तत्काल ही अनेक गुण प्रगट होते हैं. क्रोधादि कषायों की मन्दता होती है, पंचेन्द्रिय के विदयों में प्रवृत्ति रुकती है, अति चंचल मन भी एकाग्र होता है, हिंसादि: पाँच पाप नहीं होते, अल्प ज्ञान होने पर भी त्रिकाल संबंधी पदार्थों का जानना होता है, हेय उपादेय की पहिचान • होती है, आत्मज्ञान सन्मुख होता है, इत्यादिक गुण हो शास्त्राभ्यास करने से तत्काल ही प्रगट होते हैं, इसलिए शास्त्राभ्यास अवश्य करना ।
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"हे. भव्य ! शास्त्राभ्यास करने के समय की प्राप्ति होना भी महादूर्लभ है। एकेन्द्रियादि अंसंज्ञी पर्यंत जीवों के तो मन ही नहीं और नारकी अनेक वेदनाओं से पीड़ित, तियंच विवेक रहित, देव विषयासक्त हैं, इसलिए मनुष्यों को ही अनेक सामग्री मिलने पर शास्त्राभ्यास होता है, सो मनुष्य पर्याय की प्राप्ति ही
द्रव्य क्षेत्र काल भाव से महा दुर्लभ है। तुमने भाग्य से यह
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उत्तम अवसर पाया है, इसलिए जैसे बने वैसे शास्त्राभ्यास करना, अभ्यास करने में आलसी मत होना। इस निकृष्ट काल में इससे उत्कृष्ट कोई दूसरा कार्य नहीं है । "