Book Title: Kundakundadeva Acharya
Author(s): M B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
Publisher: Digambar Jain Trust

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Page 138
________________ आचार्य कुंदकुंददेव "देखो, परिणामों की विचित्रता! कोई जीव तो ग्यारहवें गुणस्थान में यथाख्यात चरित्र प्राप्त करके पुनः मिथ्यादृष्टि होकर किंचित् न्यून अर्द्धपुद्गल परावर्तनकाल पर्यंत संसार में रूलता है, और कोई नित्य-निगोद से निकलकर मनुष्य होकर मिथ्यात्व छूटने के पश्चात् अन्तर्मुहर्त में केवलज्ञान प्राप्त करता है। ऐसा जानकर अपने परिणाम बिगड़ने का भय रखना और उन्हें सुधारने का उपाय करना। औरों के ही दोष देख-देखकर, 'कवायी नहीं होना, क्योंकि अपना भला-बुरा तो अपने परिणामों से है, इसलिए अपने परिणाम सुधारने का उपाय करना योग्य है। १४० सर्वप्रकार के मिथ्यात्वभाव छोड़कर सम्यग्दृष्टि होना योग्य है, क्योंकि संसार का मूल मिध्यात्व है, मिथ्यात्व के समान अन्य पाप नहीं है. मिथ्यात्व का सद्भाव रहने पर अन्य अनेक उपाय करने पर थी मोक्षमार्ग नहीं होता। इसलिए जिस तिस उपय सर्वप्रकार मिथ्यात्व का नाश करना योग्य है। जिनधर्म में तो यह आम्नाय है कि पहले बड़ा पाप छुड़ाया फिर छोटा पाप छुडाया है! इसलिए इस मिथ्यात्व को स व्यसन से भी बड़ा पाप जानकर पहले छुड़ाया है। इसलिय ज पाप के फल से डरते हैं, अपने आत्मा को दुखसमुद्र में नही सुचाना चाहते, वे जीव इस मिथ्यात्व को अवश्य छोड़ें: निम्बा-प्रशंसा के विचार से शिथिल होना योग्य नहीं । कोई निन्दा करता है तो करो, स्तुति करता है तो करो, लक्ष्मी आओ व जहाँ-तहाँ जाओ तथा अभी मरण होओ या युगान्तर में होओ, परन्तु नीति में निपुण पुरुष न्याय मार्ग से एक डग भी चलित नहीं होते।"

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